________________
पञ्चतन्त्र
१४८
रेगी।" यह सुनकर उसने कहा, "अगर मुझे वहां जाना ही है तो मैं किस तरह अन्दर घुस सकता हूँ, यह बतला ।" इस पर सखी बोली, “रात में आप महल पर से लटकते हुए कमंद के सहारे ऊपर चढ़ आइयेगा ।" वह बोला, "अगर तुम्हारा यही निश्चय है तो मैं ऐसा ही करूंगा ।" इस प्रकार सब ठीक-ठाक करके सखी चन्द्रवती के पास आई। बाद में रात होने पर वह राजपुत्र अपने मन में सोचने लगा, “अरे यह तो बहुत बुरी बात है । कहा है कि
"गुरु की पुत्री, मित्र की पत्नी, तथा स्वामी और सेवक की पत्नियों का जो संभोग करता है, उस पुरुष को ब्रह्महत्या करने वाला कहा. गया है ।
और भी
" जिससे अपयश प्राप्त हो, जिससे नीचा देखना पड़े, जिससे स्वर्ग से गिरना पड़े, ऐसा काम नहीं करना चाहिए ।"
इस तरह सोच-विचारकर वह राजकन्या के पास नहीं गया ।
,
इसी बीच में रात में घूमते-फिरते महल के पास कमंद लटकती हुई देखकर मन में कुतूहल होने से 'प्राप्तव्यमर्थ' उसके सहारे ऊपर चढ़ गया । 'यह वही है,' ऐसा विश्वास मन में जम जाने से राजकुमारी ने स्नान, भोजन, तथा वस्त्रादि से उसका सम्मान करके, तथा उसके साथ शय्या पर बैठकर उसके अंग-स्पर्श से उत्पन्न हर्ष से रोमांचित होती हुई कहा, "तुम्हारे दर्शन मात्र से ही तुम्हारे प्रेम में फंसकर मैंने तुम्हें अपना शरीर सौंप दिया है । मन में भी तुम्हारे सिवाय मेरा कोई दूसरा पति नहीं होगा । पर तुम मुझसे बोलते क्यों नहीं ?” उसने कहा, " प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः ।" "यह कोई दूसरा है' यह जानकर राजकन्या ने उसे धरहरे से उतार कर नीचे छोड़ दिया । वह किसी टूटे-फूटे मंदिर में जाकर सो गया ।
बाद में एक दंडपाशक, जिसका किसी व्यभिचारिणी स्त्री के साथ संकेत था, वहां आ पहुंचा, और वहां पहले से ही सोये हुए 'प्राप्तव्यमर्थ ' : ' को देखा। अपनी बात छिपाने की गरज से उसने उससे कहा, “तुम कौन