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मित्र-संप्राप्ति
है, वह दूसरे का नहीं हो सकता।" कौआ और कछुआ पूछने लगे, “यह कैसे?" हिरण्यक कहने लगा
बनिए के लड़के की कथा "किसी शहर में सागरदत्त नामका एक बनिया रहता था। उसके पुत्र ने सौ रुपये पर विकती हुई एक पुस्तक खरीदी। उसमें यह लिखा था
'प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो , देवोऽपि तं लंघयितुं न शक्यः तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ।'
पुस्तक देखकर सागरदत्त ने अपने लड़के से पूछा , "पुत्र ! कितनी कीमत में तुमने यह किताब मोल ली है ?" उसने कहा , “सौ रुपये में।" यह सुनकर सागरदत्त ने कहा , "धिक्कार है मूर्ख ! अगर तू सौ रुपये में एक लिखित श्लोक खरीदता है तो क्या इसी अक्ल से तू धन कमायेगा ? इसलिए आज से तू मेरे घर में पैर मत रखना।" इस तरह उसने उसे बुरा-भला कहकर घर से निकाल दिया।
वह भी उस दुःख से अनमना होकर परदेस में किसी शहर में पहुंच कर रहने लगा । उसके कुछ दिन वहां रहने के बाद किसी शहरी ने उससे पूछा, “आप कहां से आये हैं ? आपका क्या नाम है ?" उसने जवाब दिया, "मनुष्य प्राप्तव्य धन पाता है ।" दूसरों के पूछने पर भी उसने यही जवाब दिया। इस तरह वह शहर में प्राप्तव्यमर्थ' नाम से प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन चन्द्रवती नाम की खूबसूरत और जवान राजकन्या अपनी सखी के साथ उत्सव के अवसर पर शहर देखने निकली । उसने अति रूप सम्पन्न और मनोहर कोई राजपुत्र देखा । उसके देखते ही काम-बाण से घायल होकर उसने अपनी सखी से कहा , “हे सखी ! तू ऐसा उपाय कर जिससे मेरी इसके साथ भेंट हो जाय ।" यह सुनकर वह सखी उसके पास जाकर जल्दी से कहने लगी, "चन्द्रवती ने मुझे आपके पास भेजा है और आपके लिए यह संदेशा कहा है, तुम्हारे दर्शन से कामदेव ने मेरी अंतिम अवस्था कर डाली है, इसलिए तुम जल्दी मेरे पास नहीं आते तो मृत्यु ही मुझे उबा