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मित्र-संप्राप्ति
१४३ उसी किले में चले गए। उसी समय वह दुष्ट परिव्राजक रक्त की बूंदों से रंगी जमीन को देखते हुए उस किले के फाटक पर आकर हाजिर हो गया। बाद में खजाने के लिए वह उसे खोदने लगा । खोदते-खोदते उसे वह धन मिल गया जिसके ऊपर मैं हमेशा रहता था, और जिसकी गरमी से मैं अत्यन्त कठिन जगहों में भी जा सकता था । पुलकित मन से वह अतिथि तामचूड से कहने लगा, “भगवान्! अब आप निःशंक होकर सोइए। इस गड़े धन की गरमी से ही चूहा आपको जगाता रहता था।" यह कहकर और खजाना लेकर वे दोनों मठ की तरफ चले गए। मैं भी जव गड़े हुए धन की जगह आया तो उस बदसूरत और उद्वेगकारी स्थान को देख भी न सका ।मैं विचार करने लगा, "मैं क्या करूं ? कहां जाऊं? मेरे मन को शांति किस तरह हो ? " ऐसा विचार करते-करते दिन बड़े कष्ट से बीता । सूर्यास्त के बाद मैं उद्वेगी और निरुत्साही बना हुआ उस मठ में अपने दल के साथ घुसा। मेरे साथियों की आवाज सुनकर तामचूड़ भी फिर से फटे बांस को भिक्षा-पात्र के ऊपर ठोंकने लगा। इस पर अतिथि ने कहा, "मित्र ! तू अब भी बेखटके होकर क्यों नहीं सोता ?" वह बोला, “भगवन् फिर से वह बदमाश चूहा अपने साथियों सहित आया है । उसी के भय से मैं फटा हुआ बांस भिक्षा-पात्र के ऊपर ठोकता हूं।" इस पर हँसकर अतिथि ने कहा, "मित्र! तू डर मत, इस चूहे के कूदने का उत्साह धन के साथ ही चला गया है। सब जीवधारियों की यही स्थिति होती है । कहा भी है
"मनुष्य का सदा उत्साही होना, लोगों को हराना और ऐंठकर बोलना, यह सब बल धन का है।"
यह सुनकर, क्रोधित होकर मैं भिक्षा-पात्र की तरफ जोर से ऊपर कदा, पर वहां तक पहुंचने के पहले ही जमीन पर आ गिरा। मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा वह शत्रु हंसकर तामचूड़ से कहने लगा , “अरे देखो! यह तमाशा देखो!" यह कहकर वह बोला
"सब धन से बलवान होते हैं , तथा जो धनवान है वही पंडित गिना जाता है। धन के बिना यह चूहा अपनी जाति के दूसरे चूहों .