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________________ मित्र-संप्राप्ति उसका साथ न करना चाहिए , ऐसा वृहस्पति का कहना है ।" उसके ऐसा कहने पर , लघुपतनक ने पेड़ से नीचे उतरकर उसका आलिंगन किया । अथवा, ठीक ही कहा है कि "अमृत-प्रवाह से शरीर को नहलाने से क्या ? बहुत दिनों बाद मित्र से भेंट न मिले तो अमूल्य है।" ___ इस प्रकार दोनों पुलकित शरीर से एक-दूसरे के साथ भेंटकर पेड़ के नीचे बैठकर अपनी-अपनी बातें कहने लगे । हिरण्यक भी मंथरक को प्रणाम करके कौए के पास बैठ गया। उसे देखकर मंथरक ने लघुपतनक से पूछा, “अरे यह चूहा कौन है ? तेरा खाद्य होते हुए भी तू इसे कैसे अपनी पीठ पर चढ़ाकर यहां लाया? इसके पीछे कोई छोटा कारण नहीं हो सकता।" यह सुनकर लघुपतनक ने कहा, "यह हिरण्यक नाम का चूहा है; यह मेरा मित्र और मेरे दूसरे जीवन के समान है। इससे अधिक क्या कहूं, "पानी की धाराएं, आकाश के तारे और बालू के कण जिस तरह असंख्य होते हैं उसी तरह इस महात्मा के गुण असंख्य हैं। यह अत्यंत दुख पाकर तेरे पास आया है ।" मंथरक ने कहा , “इसके वैराग्य का क्या कारण है ?" कौए ने कहा, “मैंने पूछा था , पर उसने कहा, बहुत कुछ कहना है, इसलिए वहीं जाकर कहूंगा, इसलिए मुझसे भी उसने कुछ नहीं कहा है । भद्र हिरण्यक ! अब तू हम दोनों से अपने वैराग्य का कारण कह । हिरण्यक कहने लगा परिव्राजक और चूहे की कथा "दक्षिण जनपद में महिलारोप्य नाम का एक नगर है। वहां से कुछ ही दूर पर भगवान् शिव का मठ था। वहां ताम्रचूड़ नाम का एक संन्यासी रहता था। वह नगर में भीख मांगकर अपना जीवन यापन करता था। भीख से बची चीजों को भिक्षा-पात्र में रखकर और उसे खूटी पर लटकाकर बाद में वह सोता था । सबेरे मजदूरों को वह अन्न देकर देव-मंदिर में झाड़ दिलाने, लीपने और सजाने का काम करवाता था। एक दिन मेरे साथी ने
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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