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५. सम्यक व मिथ्या ज्ञान
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१०. वस्तु पढने का उपाय,
ग्रहण करे धैर्य रखे, ३० के ३० भावों को ग्रहण करके भी अहकार न करे, सतुष्ट न हो। अव इनको यथा स्थान जड़ कर इन सब को रसात्मक अखड रूप प्रदान करे बिल्कुल इस प्रकार कि जिस प्रकार चित्र न १ मे है अर्थात् चित्र नं . २ को चित्र न १ मे परिवर्तित करे ।
क्योकि आगम मे या किसी भी उपदेष्टा के वचनो मे ऐसा होना सभव नही, कि जिस क्रम मे न १ से न ३० तक आपने उन सर्व अगों का निर्णय किया है उसी क्रम मे वे प्रगट हो। कहा तो सव आगे पीछे कोई भी कही, कटमा रूप से प्रकट हो जायेगे। और यदि उपरोक्त प्रकार दोनो स्पष्ट चित्रण आपके हृदय मे न होगे, तो अवश्यमेव उन वक्तव्यो या लेखो मे दीखने वाले विरोधो मे तथा उन पहिले व पीछे वाले अंगो मे परस्पर सम्मेलन बैठने पायेगा। इसी से कुछ विरोध सा भासने लगेगा। और आप कहने लगेगे कि पहिले तो कुछ कहा और अव कुछ कह रहे हो, कुछ समझ मे नही आता । जैसे कि जब यह वात सुनोगे कि'चारित्र' ही धर्म है तो कह वैठोगे कि फिर 'श्रद्धा धर्म का मूल है यह क्यो कहते हो? और जव सुनोगे कि ज्ञानधारा में स्थिति पाना ही मुक्ति का कारण है तब कहने लगोगे कि फिर तो यह संभव व व्रतादि धारण निरर्थक ही रहा-इत्यादि, और यही आज हो रहे है । अत. उपरोक्त प्रकार निर्णय करके दोनों चित्रण वनाने की आवश्यकता है ।
इसी प्रकार अभ्यास कर करके जब तक इस कोटी मे नही पहुंच जाते कि किसी भी गुण या पर्याय की बात सुनने या पढ़ने पर यथा स्थान दृष्टि पहुँच जाये, उस समय तक हृदय पट पर वह चित्रण हुआ नहीं कहा जा सकता। यहा तो इससे भी ऊपर जान है । क्योकि ऐसा तो कदाचित शाब्दिक चित्रण के द्वारा भी होना संभव है कि सुने या पढे शब्दों का अर्थ यथा स्थान कर सम्मेलन बैठा दिया जाये, परन्तु वास्तविक चित्रण तो उसे कहते है कि ऐसा प्रतीति