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५. सम्यक् व मिथ्या ज्ञान
६७ ७ काल्पनिक चित्रण सम्यग्ज्ञाननही
महल सज्ञा को प्राप्त भी हो सकेगा? भले ही दूर से देखने पर वह महल ही भासता हो, क्योंकि दीवारे तो ठीक ही खड़ी हुई दीखेगी, पर पास आने पर क्या आपकी हसी रुक सकेगी? और इस प्रकार ई टो, दर्वाजों व फर्नीचर आदि को जोड़कर एक अखड रूप दे देने पर भी ईट पत्थर आदि एक महल का काम न दे सकेगे, और इसलिये उनका मूल्य अब भी ईट पत्थरो से अधिक कुछ न हो सकेगा । सम्भवत उससे भी कुछ कम हो जाये । क्योकि चिनने से पहिले तो वे सब बेचे भी जा सकते थे, पर अब तो वे बेचे भी नहीं जा सकते । यदि इस महल को तोड़कर भी उनको बेचने का प्रयास किया जाये तो कोई इनके कितने टके देगा, क्योकि अब वह सब पुराने हो चुके है ।
बस इसी प्रकार यदि उस पूर्वोक्त शाब्दिक धारारूप चित्रण को अर्थात् आगम ज्ञान के अगों को परस्पर जोड़कर भी यदि मै एक अखड रूप प्रदान कर दू, परन्तु उनको यथा स्थान फिट न बैठाकर बिना विचारे उनका जो सो भी अर्थ ग्रहण कर लू तो क्या मेरे वह कुछ काम आ सकेगा? जो अग जहा लागू होता हो, जिस अग का जिस अपेक्षा से जो अर्थ होता है वह न करके जहां कही भी उसे लागू कर दू, तो बताइये उन आगम ज्ञान के अंगो का क्या मूल्य रहा। सम्भवत जुड़ने से पहिले तो कुछ काम आ भी जाते, क्योकि वहां तक तो उनका अर्थ समझने व फिट बैठाने की जिज्ञासा थी जो कि किन्ही ज्ञानियो के सम्पर्क मे आकर कदाचित् पूरी की जा सकती थी, पर अब तो एक अभिमान जागृत हो चुका है, जिसने कि उसे जिज्ञासा का भी गला घोट दिया है। बताओ ऐसी हालत मे उनका क्या मूल्य ? क्या यह सब ज्ञान बेकार नहीं है ? ऐसा करने पर भले ही साधारणतया उसमे सशयादि की प्रतीति न होने पावे क्योकि उसका ऊपरी ढाचा कुछ जुड़ा हुआ सा दिखाई देता है, पर अन्तरग मे झुककर वे संशयादि अब भी अवश्य पढ़े जा सकते है । इस रूप में कि “अरे ! भले बहुत आगम पढ लिया हो और तर्क आदि