________________
२२: निक्षेप
७४७
५. स्थापना निक्षेप तो चोर की स्थापना करके उसे चोर स्वीकार कर लेते है और किसी मे सिपाही की कल्पना करके उसे सिपाही स्वीकार करलेते हैं । जब तक खेल खेलते है तब तक बराबर चोर सिपाही ही समझते रहते है । वास्तव मे वे चोर सिपाही नही है, पर कल्पना मात्र से ही उनमे चोर सिपाही की स्थापना की गई है । स्थापना निक्षेप से उन्हे चोर सिपाही कहना, ठीक है पर नाम निक्षेप से नही। . __यद्यपि दोनो ही दशाओ मे अर्थात नाम व स्थापना निक्षेपों मे गुणो से निरपेक्ष नाम लिये गये है परन्तु फिर भी दोनों मे अन्तर है । नाम निक्षेप मे पूज्य पूजक व निंद्य निन्दक भाव उत्पन्न नही हो सकता, पर स्थापना निक्षेप मे होता है । जैसे किसी का नाम 'राजा' रख देने से उसकी राजा वत् विनय नही की जाती, परन्तु नाटक मे किसी को राजा मान लेने पर उसकी राजा वत् विनय की जाती है । दूसरे नाम निक्षेप की प्रवृति केवल शब्द मे होती है और स्थापना निक्षेप की प्रवृत्ति असली पदार्थ के अनुरूप दूसरे पदार्थ मे । अत. नाम निक्षेप की अपेक्षा यह सत्य के कुछ निकट है।
यह स्थापना निक्षेप दो प्रकार का होता है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना । किसी ऐसी वस्तुमे स्थापना करना जिसमे कि उस असली वस्तु की कुछ आकृति आदि रूप से अनुरूपता पाई जाये, सद्भाव स्थापना कहलाती है, जैसे भगवान की आकृति रुप बनाई गई या महात्मा गान्धी की आकृति रूप बनाई गई पत्थर की मूर्ती को भगवान यामहा-मा गाधी वत् ही मानने का, तथा उसकी असली भगवान व महात्मा गान्धी वत् ही पूजा व विनय करने का व्यवहार प्रचलित है । आकृति से निरपेक्ष जिस किसी वस्तु में भी जिस किसी वस्तु की कल्पना कर लेना असदभाव स्थापना है, जैसे शतरज की गोटो में किसी को हाथी और किसी को घोड़ा कहने का व्यवहार है । तथा अन्य प्रकार से भी बाह्य वस्तु के आश्रय पर इसके अनेको भेद किये जा सकते है, जो निम्न उद्धरणों मे दिये गये है ।