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५. सम्यक् व मिथ्या ज्ञान
२ सशयादि व उसका कारण अखड चित्रण का प्रभाव
को शमन करने के अर्थ, उस अनेकान्त सिद्धात का जन्म हुआ है, और यहा भी यह नय विवरण इसी लिये चल रहा है ।
प्रमाण, नय, एकान्त व अनेकान्त यह चार बाते मुख्यत इस प्रकरण मे जानने योग्य है । यह चारों सम्यक् ही होते हों ऐसा नही है । यह चारो के चारों मिथ्या भी होते है । सम्यक् प्रमाण, मिथ्या प्रमाण, सम्यक्नय, मिथ्यानय, सम्यगनेकान्त, मिथ्या अनेकान्त, सम्यगेकान्त, मिथ्या एकान्त इस प्रकार इन चारों के आठ रूप हो जाते है, तथा इसी प्रकार वस्तु के प्रत्येक अंग के, अपेक्षावश दो विरोधी भेद उत्पन्न हो जाया करते है । इन विरोधो को दूर करने के अर्थ ही इस अनेकान्त वाद या नय वाद का प्रयोग करने मे आता है । इसे ही स्याद्वाद कहते है । किसी अपेक्षा से वस्तु का वह अंग ठीक भासता है और किसी अन्य अपेक्षा से वह ठीक नही भासता । प्रत्येक वस्तु के विरोधो को खोला जाना तो यहां असम्भव है । उसके लिये तो बुद्धि ही एक मात्र साधन है । यहा तो बुद्धि को इस प्रकार के विरोधो का ठीक ठीक अर्थ बैठाने का अभ्यास कराना अभीष्ट है एक पथ और दो काज । सम्यक् मिथ्या, प्रमाण व नय भी जाने जाये और ठीक ठीक अर्थ बैठाने का अभ्यास भी प्रारंभ हो जाये इसलिये यहा यह बात स्पष्ट करने मे आयेगी कि अपेक्षाये किस प्रकार लागू की जाती है, और उन्हे लागू करके अर्थ कैसे निकाला जाता है ।
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कल वाले प्रकरण मे इन चारो के लक्षण बता दिये गये है, आज यह बताया जाता है कि चारो ही मिथ्या व सम्यक् क्यो हो जाते है । यहा यह बात समक्ष लेनी चाहिये कि सम्यक् ज्ञान उसे कहते है जो प्रतिबिम्बवत् का प्रत्यक्षवत अत्यन्त स्पष्ट हो, जिसमे कोई सशय न हो अर्थात् 'ऐसे है कि ऐसे है' ऐसा भाव प्रतीती मे न आता हो । जिसमे विपर्य्याता न हो अर्थात् बिल्कुल उल्टा प्रतिभास न होता हो । और जिसमे अनध्यवसाय न हो अर्थात् " क्या कुछ है क्या प्रतीती में
सशयादि व
उसका कारण अखड चित्रण
का आभाव