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२ विशुद्ध अध्यात्म नय
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७. उपचरित व ग्रनुपचरित
सद्भूत व्यवहार नय
अपि वास तो योsनुपचरिताख्यो नय सभवति यथा । त्रोवाद्या जीवस्य हि विवक्षिताज्येद बुद्धि भवाः । ५४६ | "
अर्थ - उपचरित असत व्यवहार इस नाम से कहा जाने वाला नय इस प्रकार है, जैसे कि जीव के बुद्धि गम्य क्रोधादि औदयिक भावो की विवक्षा होती है । । ५४९ | और जो यह अनुपचरित असत इस नाम का वाच्य नय है वह इस प्रकार है जैसे कि जीव के अबुद्धिगम्य क्रोधादि भावों को जीव का कहना । ५४६ |
२. प.ध. १३०९०६ । विश्येतत्परं केज्यिद्स तोपचारतः । राग व ज्ज्ञानमात्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम । ९०९ |
अर्थ- कोई कोई आचार्य मात्र ऐसा विचार करके जिस प्रकार असद्भूत उपचार नय से ज्ञान को राग वाला कहत हैं। उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी राग वाला कह देते है ।
३ वृ द्र स 1६।१८ " कुमति कुश्रुत विभंगत्रये पुनरूपचरितासद्भूत व्यवहार ।”
अर्थ -- कुमति कुश्रुत और विभग इन तीनो को ज्ञान कहना उपचरित सद्भूत व्यवहार है ।
क्रोधादि पर भावों को जीव का कहने के कारण असद्भूत है । स्थूल भावों को ग्रहण करने के कारण उपचार और सूक्ष्म भावो को ग्रहण करने के कारण अनुपचार है । भेद करने के कारण व्यवहार है | अतः 'उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय' यह