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२०, विशुद्ध अध्यात्म नय
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४. सद्भूत व्यवहार
नय सामान्य इन गुणो के आधार पर पृथक पृथक द्रव्यो का परिचय देकर उनमे विभिन्नता दर्शाना इस नय का काम है अर्थात एक अद्वैत सत् को खण्डित कर देना इसका काम है । इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये।
१ प ध । पू । ५२५-५२६ “व्यवहारनयो द्वेधाः सद्भूतस्वत्य
भवेदसद्भूत. । सद्भूतस्तमुङ्गण इति व्यवहारस्त त्प्रवृत्तिमात्रत्वात् । ५२५ । अत्र र्निदानच यथा सद्साधारण गुणो विवक्ष्य स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि चसत्साधारण गुणो न चान्यतरात् । ५२६ ।"
अर्थः-सद्भूत तथा असद्भूत इस भाति व्यवहार नय दो प्रकार का है । उसमे से विवक्षित वस्तु के गुण का नाम सद्भूत है तथा इन गुणो की प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है । प्रवृत्ति का अर्थ यहा सज्ञा सख्यादि की अपेक्षा कथन मे भेद डालना समझना, वस्तु मे नही, । ५२५ । इस प्रवृति मे कारण यह है कि जिस प्रकार यहा 'सत्' अर्थात द्रव्य सामान्य के किसी असाधारण या विशेष गुण की विवक्षा करने में आती है उस प्रकार सत् के किसी साधारण या सामान्य गुण की विवक्षा करने मे नही आती। और इसी प्रकार अन्य भी कोई पर्याय आदि की विवक्षा करने मे नही आती। तात्पर्य है कि व्यवहार सामान्य मे तो सामान्य व विशेष दोनो गुणो का ग्रहण होता था पर सद्भुत मे केवल विशेष गुणो का ही ग्रहण करके द्रव्य विशेष का परिचय दिया जाता है । ५२६ ।
द्रव्यो मे प्रत्यक्ष होने वाली उपरोक्त विजातीयता इस नय की उत्पत्तिका कारण है । क्योकि यह विजातीयता न होती तो इस नय का कोई विषय भी न होता । विषय के अभाव मे नय का भी अभाव होता । द्रव्य में रहने वाले यह विशेष गुण सदभूत है अर्थात