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२०. विशुध्द ग्रध्यात्म नय
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१. विशुध्द प्रत्यात्म परिचय
नही देता । स्व को जानते समय यह स्व स्वरूप के साथ तन्मय होता है और पर को जानते हुए यह उसके साथ तन्मय सा हो जाता है । तन्मय का अर्थ यहा उस पदार्थ रूप बन जाना नहीं है, वल्कि अपने को भूलकर केवल उस पदार्थ की सत्ता को देखना मात्र है | अथवा ज्ञेय पदार्थ मे परिवर्तन होने पर अपने भावो में भी तदनुसार परिवर्तन करना इसका अर्थ, जैसे कि फूल खिल जाने पर कुछ हर्ष व उसके मुरझा जाने पर कुछ विपाद सा होना । इस कारण चेतन रहते हुए भी उसमे चेतन भाव व जड भाव दोनों देखे जा सकते है । वाढी विचित्र है पर दृष्टि विशेष सी समझी अवश्य जा सकती है ।
जीव पदार्थ मे ज्ञान गुण ही प्रमुख है, अन्य सव उसका विस्तार है | चेतन के सव गुण चेतन है अर्थात ज्ञानात्मक व अनुभवात्मक है । ज्ञान तो ज्ञान है ही, श्रद्धा भी ज्ञानात्मक है और चारित्र भी, क्योंकि ज्ञान के ही निः समय रूप को श्रद्धा और उसी के स्थित रूप को चारित्र कहते है । सुख भी ज्ञानात्मक है क्योकि अनुभाव नाम ज्ञान का ही है । इसी कारण आत्मा को चित्पिण्ड कहा जाता है । या यो कहिये कि ज्ञान मात्र ही आत्मा है । अत ज्ञान के कार्यों को ही ज्ञान का विषय वनाना अभीष्ट है ।
यद्यपि ज्ञान का कार्य जानना है, पर इसके साथ कुछ और भाव भी सलग्न है । जानना दो प्रकार का होता है - एक केवल जानना और दूसरा कल्पना विशेष के साथ जानना । अजायबघर में रखी वस्तुओ को जानना केवल जानने का उदाहरण है । और घर में पड़ी वस्तुओ को जानना कल्पना सहित जानने का उदाहरण है । अजायब घर मे प्रत्येक वस्तु अपने अपने स्थान पर सुन्दर लगती है । और घर की वस्तुओं मे कोई सुन्दर और कोई असुन्दर लगती है । अजायब घर