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१६. व्यनहार नय
६५७ १३ अनुपचरित
असभूद्त व्यवहार नय (अर्थ-अनुपरित असद्भूत व्यवहार नय से आत्मा देह से
भिन्न है ।)
तात्पर्य यह कि जहा पर शरीर व कर्मों सहित य रहित की, उनके कर्ता पने या विनाशकपने की, उनको भोगने या उनको त्यागने आदि की कोई भी अपेक्षा हो वहां अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय समझना ।
शरीर व कर्मो का जीव के साथ या परमाणु का स्कन्ध के साथ या इसी प्रकार अन्यत्र भी एक पदार्थ का दूसर के साथ दीखने वाला सश्लेष सम्बन्ध ही इस नय की उत्पत्ति का कारण है । यदि सश्लेष सम्बन्ध कोई वस्तुभूत विषय न हुआ होतातो यह नय भी न होता । सश्लेष सम्बन्ध को या निकट सम्बन्ध को दर्शाने के कारण ही यह अनुपचार है, तथा भिन्न पदार्थो मे एकत्व दर्शाने के कारण असद्भूत व्यवहार है । यह इस नय का कारण है ।
कर्मोदय से उत्पन्न होने वाली सर्व पर्याय वास्तव मे हेय है । उन को अपेक्षा से दूर निज शुद्ध द्रव्य का निश्चय करना ही सम्यक्त्व है । इस प्रकार परम तत्व मे अचलित वृति कराना इस नय का प्रयोजन है।
शंकाः-फिर एक परमार्थ या निश्चय नय का ही कथन करना
था, व्यवहार नय का कथन क्यो किया ?
उत्तर --क्योंकि प्रथम भूमिका मे किसी अनिष्णात व्यक्ति को
वस्तु स्वरूप समझाने का इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नही । तथा ज्ञानी के लिये भी वस्तु को अधिकाधिक विशेष रूप से देखने या दर्शाने मे इसका उपकार