________________
१६. व्यवहार नय
६७६
१०. प्रसद्भूत व्यवहार
नय का लक्षण
परमाणु के गुण या पर्याय का आरोप उसी परमाणु मे करना तो सद्भूत व्यवहार है, परन्तु एक जीव के गुण पर्याय का आरोप अन्य जीव के गुण पर्याय मे करना अथवा किसी पुद्रगल द्रव्य के गुण पर्याय मं करना असद्भूत का विषय है । " में सिध्द भगवान तुल्य हूँ" ऐसा कहाता सजातीय द्रञ्यारोपण है और "मैं पच्चेन्द्रिय जीव हू" ऐसा कहना विजातीय द्रव्यारोपण है । " मे केवलज्ञान वाला हू" ऐसा कहना सजातीय द्रव्य मे सजातीय गुणारोपण है और "मै मूर्त हूं" ऐसा कहना सजातीय द्रव्य मे विजातीय गुणारोपण है । 'वह नगर पति है' ऐसा कहना स्वजाति द्रव्य मे उभय द्रव्यारोपण है । उपचार के अनेक भेद प्रभेदो का विस्तार पहिले प्रकरण नं. २ मे दिया जा चुका है, वहा से देख लेना ।
-
दो द्रव्यों में यह ९ प्रकार का उपचार करके एक दूसरे मे स्वामित्व सम्बन्ध की या कर्ता-कर्म सम्बन्ध की, या भोक्ता - भोग्य सम्बन्ध की तथा अन्य भी सम्बन्धों की स्थापना करना असद्भूत व्यवहार नय का लक्षण है। जहां एक द्रव्य में गुण गुणी आदि रूप से द्वेत उत्पन्न करना भी उपचार है तहां भिन्न द्रव्यों के गुण पर्यायो में अद्वैत का तो बहुत बड़ा उपचार हुआ । इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथित उद्धरण देखिये ।
१ आप। १६ वॄ १२७ “ अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य अन्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहार असद्भूत व्यवहार एवोपचारः । "
अर्थ -- अन्यत्र अर्थात् अन्य द्रव्य मे प्रसिध्द जो उसके धर्म उनका अन्य द्रव्य मे समारोपण करना असद्भूत व्यवहार है । असद्भूत व्यवहार का नाम ही उपचार है ।