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४. प्रमाण व नय
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१. अभ्यास करने की प्रेरणा
गुरुदेव आपको अज्ञानी या मिथ्या दृष्टि कह रहे है- इसलिये नही कि आपको चिढ़ाना अभीष्ट है बल्कि इसलिये कि भूल दर्शाकर आपको ज्ञानी बनाना अभीष्ट है । भूल स्वीकार किये बिना भूल दूर होती नही । यदि यह शब्द सुनकर चिढ़ सी उत्पन्न होती है तो भाई ! ले हम सब तुझको आज से ज्ञानी व सम्यग्दृष्टि कहने लगेगे । हमारा क्या जायेगा, बिगड़ेगा तो तेरा ही । तेरा ही अहंकार पुष्ट हो जायेगा, जिसके कारण तू अपना वह मैल धोने का प्रयास न करेगा । जैसा कि आज तक करता आया है । शाब्दिक ज्ञान के अभिमान के आधार पर तू अपने को ज्ञानी मानता हुआ दूसरे को ही समझाने का प्रयत्न करता रहेगा, पर स्वयं समझने का प्रयत्न न कर सकेगा । बता क्या लाभ होगा ? भाई ? इस झूठे अहंकार से तो सभव है ही नहीं, धैर्य छोड़ बैठने से भी मन शोधन संभव नही है । धैर्य पूर्वक बालक्वत चलना सीखने मे दत्तचित्त होकर प्रयास व अभ्यास करें ।
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आज का बुद्धिपूर्वक प्रारंभ किया गया अभ्यास एक दिन अभ्यस्त हो जाने पर अबुद्धिपूर्वक की कोटि को प्रवेश कर जाएगा। बिल्कुल उस प्रकार जिस प्रकार कि बालक चलना सीखते हुए पहिले तो एक एक पग सोच विचार कर उठाता व रखता है, गिरता भी है, पर अभ्यस्त हो जाने पर वह बिना विचार किये दौड़ने लगता है, और गिरता भी
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नही है, प्रत्येक पग आप ही आप ठीक उठने लगता है । उसी प्रकार यदि आज से बुद्धिपूर्वक आगम वाक्य का अर्थ ठीक बैठाने का अभ्यास प्रारंभ करेगा तो हर बात पर विचार करना पड़ेगा, कही कही भूलेगा भी, पर अभ्यस्त हो जाने पर सहज ही प्रत्येक बात का अर्थ तू ठीक बैठाने में समर्थ हो जाएगा !- तब विशेष विचार करने की भी आवश्यक्ता न पड़ेगी 1
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बस जब तक वह अभ्यास होता नही तब तक ही तू अज्ञानी- कहा जा रहा है, अभ्यास हो जाने के पश्चात् ज्ञानी बन जावेगा - ! अतः