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१६. निश्चय नय
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४. व्यवहार नय के
____ कारण व प्रयोजन व्यवहार का आश्रय पूर्णतः छट जाता है और निश्चय का आश्रय पूर्णताः हो जाता है । तब तो निश्चय व व्यवहार का विकल्प भी उठाया नहीं जा सकता।
सब कुछ कहने का तात्पर्य यह है कि लक्ष्य तो पूर्णता का होता है , अतः श्रद्धा, रूचि व लक्ष्य मे तो निश्चय नय ही प्रधान व ग्राह्य है और व्यवहार नय हेय है । परन्तु अल्प भूमिकाओं की प्रवृत्ति के मार्ग में व्यवहार नय भीप्रधान व ग्राम है । यही इस नय का प्रयोजन है।
परन्तु यह बात कहनी उसी समय सार्थक है जबकि लक्ष्य निश्चय पर से न डिगे । निश्चय व व्यवहार नय का अर्थ यहां तीनों प्रकार से जानना योग्य है । ज्ञान की अपेक्षा निश्चय का अर्थ है अभेद वस्तु का ज्ञान, चारित्र की अपेक्षा निश्चय का अर्थ अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि और, सम्यक्त्व की अपेक्षा निश्चय का अर्थ है अखण्ड ज्ञायक स्वभावी शुद्धात्मा का श्रद्धान। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा व्यवहार का अर्थ है एक वस्तु मे गुण गुणी के द्वैत रूप ज्ञान अथवा निमित नैमितिक दो पदार्थों का कथांचित अद्वैत रूप ज्ञान, चारित्र की अपेक्षा व्यवहार का अर्थ है विकल्पात्मक भेद चारित्र अर्थात अन्तरंग मे व्रत समिति आदि को पालने का विकल्प तथा बाह्य मे देव शास्त्र गुरू आदि शुभ निमित्तो के । ग्रहण का विकल्प अथवा विषय भोगों के कारणभू तअशुभ निमित्तों के त्याग का विकल्प; और सम्यक्त्य की अपेक्षा व्यवहार का अर्थ है देव शास्त्र गुरू आदि बाह्य पदार्थो के प्रति दृढ़ श्रद्धान । ज्ञान, चरित्र, व सम्यक्त्व, तीनों का यह व्यवहारिक रूप उसी समयसार्थक है जबकि दृष्टि बराबर उस अखण्ड वस्तु तथा निर्विकल्प चारित्र तथा अखण्ड ज्ञानस्वामी शुद्धात्मा रूप निश्चय पर टिकी रहे । इंसे ही कहते है निश्चय सापेक्ष व्यवहार - का - सम्यक ग्रहण ।