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१६. व्यवहार नय
६६२ ४. व्यवहार नय के
कारण व प्रयोजन उस वास्तविक अभेद चारित्र के अंश या भेद रूप है । इसी, लिये जब उस यथार्य पूर्ण अखण्ड चारित्र को-निश्चय चारित्र कहते है तो उसके आशिक अग या भेद रूप इस अभ्यासगत चारित्र को व्यवहार चारित्र कहते है । बिना व्यवहार चारित्र के अभ्यास को अगी कार किये निश्चय अभेद चारित्र अगीकार किया जाना असम्भव है । अत यहां भी व्यवहार चारित्र साधन है और निश्चय चारित्र. साध्य है।
सम्यक्त्व के विषय मे भी शुद्धात्मानुभव रूप निश्चय सम्यक्त्व तो अदृष्ट है, अत. उससे पहिले साक्षात शुद्धात्मस्व रूप वीतराग देव, शुद्धात्म की प्रवृति स्वरूप वीतराग गुरू तथा शुद्धात्म की प्रतिपादक वीतराग वाणी इन तीनो बाह्य पदार्थों का श्रद्धान रूप व्यवहार सम्यक्त्व होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योकि उनके दर्शन से ही शुद्धात्म रूप निश्चय सम्यक्त्व का दर्शन होता है, उन पर श्रद्धान करने, से ही उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करने के प्रति रूचि जागृत होती है । इस प्रकार व्यवहार सम्यक्त्व साधन है और निश्चय सम्यक्त्व साध्य है।
सिद्ध हुआ कि ज्ञान की अपेक्षा या चारित्र की अपेक्षा या सम्यक्त्व . की अपेक्षा तीनो ही प्रकार से व्यवहार नय साधन है और निश्चय नय साध्य है। बिना ज्ञान के श्रद्धा या लक्ष्य भी बनना असम्भव है अतः उस लक्ष्य को बनाने के लिये भी प्राथमिक अवस्था में व्यवहार नय का आश्रय अत्यन्त आवश्यक है । इस प्रकार उस व्यवहार नय का उपकार कैसे भूला जा सकता है । निश्चय नय की सिद्धि के लिये या तीर्थ प्रवृति के लिए प्राथामिक अवस्था मे व्यवहार ही आश्रय करने योग्य है । हा पीछे से जू जू लक्ष्य के निकट पहुंचता रहता है तू तू,उसका आश्रयः छटता जाता है और निश्चय या अभेद का आश्रय प्रगट होता जाता है । पूर्णता. हो जाने पर