________________
१६. व्यवहार नय
६५६
४. व्यवहार नय के
कारण व प्रयोजन
तथा एक जीव मे ज्ञान व सुख दुःख आदि देखने मे आते हैं। यह भिन्न भिन्न बाते भले ही अभेद रूप से एक द्रव्य मे एकमेक हुई पड़ी हों पर इन का अनुभव व स्वाद भिन्न रूप से ग्रहण करने मे आता है, तथा उन भिन्न भिन्न कार्यो से हमारे एक प्रयोजन की नहीं बल्कि भिन्न भिन्न प्रयोजनों की सिद्धि होती है। जो प्रयोजन एक कार्य से सिद्ध होता है वह उस से ही सिद्ध होता है दूसरे से नहीं-जैसे स्वाद का विषय पूरा करने का प्रयोजन आम के रस से ही सिद्ध होता है उसके रंग से नहीं । इस प्रकार का भेद दीख' अवश्य रहा, है, इस लिये वस्तु मे भेद डालकर समझा या समझाया जाना अवश्य सम्भव है, भले ही वस्तु रूप से वे भेद पृथक पृथक न किय जा सके । बस यही इस नय की उत्पत्ति का कारण है, क्योंकि यदि यह भेद सर्वथा वस्तु मे न होते तो भेद ग्रहण करने वाला ज्ञान भी न होता । फिर यह नय भी कहा से आता।
यद्यपि वस्तु की अखण्डता को कलकित करके कहने वाला यह नेय असत्यार्थ' है । क्योकि वस्तु न तो वैसी भेद रूप वास्तव में है जिस प्रकार की कि शब्दों द्वारा यह कहता है, न ही अभेद द्रव्य मे कर्ता कर्म आदिक भाव उत्पन्न किये जा सकते है । जीव ज्ञान है और ज्ञान जीव है, फिर कौन किसको जाने, सब एक मेक ही तो है । जिसको जानता है वह भी जीव है और जो जानता है वह भी जीव है और जिसके द्वारा जानता है वह भी जीव है, फिर किसको कर्ता कहे, किसको कर्म कहे और किसको कारण कहे । तथा दो भिन्न भिन्न द्रव्यो में एकत्व दर्शाना भी असत्यार्थ है, क्योकि तीन काल मे दो द्रव्य मिल कर एक बनने कभी सम्भव नही । एक पदार्थ को दूसरे का कर्ता या स्वामी कहना वस्तु की शक्ति व स्वभाव की स्वीकृति से इन्कार करना है । वस्तु स्वभाव की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र रूप से अपने गुण व पर्यायों की ही