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व्यवहार नय
६. उपचार क भेद
व लक्षण
८. प. ध. [ पू०. ५३० स यथा वर्णादिम । मूर्त द्रव्यस्य कर्म
किल मूर्तम् । तत्सयोगत्वादिह मूतोः क्रोधादयोऽपि जीव भावाः । ५३० ।"
अर्थ-वर्णादिमान मूर्त द्रा से निर्मित कर्म ही यद्यपि मूर्त है
जीव के भाव नही, फिर भी उनके सयोग से उत्पन्न होने के कारण जीव के क्रोधादि भावो को भी सिद्धान्त में मूर्त कह दिया जाता है।
यहा स्वपर्याय मे विजाति द्रव्य का आरोप किया है । गुण गुणी आदि रूप से नही बल्कि कर्ता कर्मादि रूप से भी यह सब उपचार करने मे आते है ।
६. आ. पा.।१६। पृ. १२८ "सश्लेप , परिणाम परिणामी सम्बन्धः,
श्रद्धाश्रद्धेय सम्बन्ध , ज्ञानज्ञेय सम्बन्धः, चारित्रच-- सम्बन्धश्चेत्यादि सत्यार्थः असत्यार्थ. सत्यासत्यार्थश्चेत्युपचरितासद्भूतव्यवहार नयस्यार्थः ।"
अर्थः-सश्लेष सम्बन्ध, परिणाम परिणामी सम्बन्ध, श्रद्धा श्रद्धेय
सम्बन्ध, ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध, चारित्र चर्या सम्बन्ध इत्यादि प्रकार के अनेको सम्बन्ध सत्यार्थ अर्थात स्वजाति द्रव्यो मे भी हो सकते है, असत्यार्थ अर्थात विजाति द्रव्यो मे 'भी हो सकते है, तथा, सत्यासत्यार्थ अर्थात उभय या स्वजाति व विजाति के सम्ह रूप द्रव्यो मे भी हो सकते है। ये सब प्रकार के सम्बन्ध ही उपचरित असद्भूत व्यवहार नय के विषय है ।
इनके अतिरिक्त यह उपचार अनेकों प्रकार करने में आता है।