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१८. निश्चय नय
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१२. निश्चय नय सम्बन्धी
शका समाधान
अहितकारी है। शुद्ध निश्चय नय का प्रयोजन स्वच्छन्द का पोषण कराना तो नही था पर क्या करे इस जीव को ऐसी टेव पडी है। यह अपराध करता हुआ भी अपने को अपराधी कहलाना नही चाहता ।
अशुद्ध निश्चय नय जीव को उस के अपराधो का स्वीकार कराता है। स्तम्भ मे यह रागादि भाव देखे नही जाते तो जड़ कर्म में कैसे हो सकते है ? शद्ध निश्चय नय की दृष्टि मे तो दिखाई नही देते थे इसलिये उन को जीव का स्वीकारा न जाता था, पर इस नय की दृष्टि मे तो वे दिखाई देते है । दिखाई ही देते है तो किस के कहें । जीव के न कहे तो क्या कर्मो के कहे ? सो तो सम्भव नहीं है क्योंकि साक्षात रूप से यह भाव चेतन रूप है । अत भाई ? इनका कर्ता स्वतन्त्र रूप से तृ स्वय है, ऐसा अपना अपराध स्वीकार करके इन को दूर करने का प्रयत्न कर । पद पद पर अपना अपराध स्वीकार करता चल, यही इन्हे दूर करने का उपाय है । क्योकि स्वीकार अकेला नहीं हो रहा है, उसके साथ निन्दन गर्हण भी है।
रागादिकातो तेरा स्वभाव नही है, तो फिर इनमे क्यो रमता है इन का निषेध करके इनसे दूर अन्तर मे पडे उस परम शुध्द स्वभाविक चैतन्य विलास को लक्ष्य मे क्यो नही लेता, जो शुध्द निश्चय नय का विषय है। इस प्रकार अशुध्दता से हटाकर शुद्ध स्वभाव में स्थिरता कराना इस नय का प्रयोजन है।
१२ निश्चय नय सम्बन्धी अब इस नय सम्बन्धी कुछ शंकाओं का शका समाधान
समाधान करता हूँ।
१ शंका --आगम पद्धति व अध्यात्म पद्धति में क्या अन्तर है ?