________________
१७. पर्यायार्थिक नय
५८०
५. पर्यायार्थिक नय
समन्वय
शमन हो चुकी है, यह सामान्य व विशेष दोनों के युगपत ग्रहण की अद्वैत स्थिति है । इसे आप स्वय कह कर बता नही सकते, अत· सर्वथा अवक्तव्य है । यद्यपि यह तीसरी स्थिति पहली स्थिति से कुछ मिलती सी प्रतीति होती है, पर इनमें बडा अन्तर है, जो जाना सकता है पर कहा नही जा सकता ।
बस पहिली स्थिति का ज्ञान द्रव्यार्थिक नय का ज्ञान है, दूसरी स्थिति का ज्ञान पर्यायार्थिक नय का ज्ञान है और तीसरी स्थिति का ज्ञान द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनो के युगपत ग्रहण रूप प्रमाण ज्ञान है । इस प्रकार यद्यपि प्रमाण ज्ञान द्रव्यार्थिक सरीखा सा दीखता है पर इन मे महान अन्तर है ।
इसी प्रकार अध्यात्म प्रकरण मे - मनष्य, मुनि व अर्हत इन तीन अवस्थायो में रहने वाला एक मनुष्य सर्व साधारण जन की दृष्टि मे एक मनुष्य मात्र है । गृहस्थावस्था में उसके साथ व्यवहारिक सम्बन्ध रखने. वाले की दृष्टि मे उसकी मनुष्य रूप सत्ता उस ही समय तक थी । मुनि हो गया तो उससे कुछ नाता न रहा और इसलिये उस की दृष्टि में वह अब लोक में ही रहा नही । इसी प्रकार आहार दान करने वाले - गुरु भक्त की दृष्टि में 'वह पहिले गुहस्थ था' यह आता नही, तथा 'अर्ह त होगा' यह भी उसे भान नही । समवशरण मे बैठे व्यक्ति की दृष्टि में वह अर्हन्त ही है । परन्तु उस मनुष्य की दृष्टि मे जो कि जन्म से निर्वाण पर्यन्त उस के साथ रहा, वह अकेला