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१७. पर्यायार्थिक नय
प्रकार वस्तु मे ध्रुवता सर्वदा पाई जाती है, उसी प्रकार उसमे परिगमन भी सर्वदा पाया जाता है । जिस प्रकार नित्यता उसका स्वभाव है उसी प्रकार अनित्यता भी उसका स्वभाव है ।
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४. पर्यायार्थिक नय विशेष के लक्षण
उदाहरणार्थं एक ऐसी अग्नि शिखा को देखिये जो अत्यन्त प्रचड है, तथा धधक रही है । इसे स्थिर कहोगे या अस्थिर ? स्पष्ट है कि स्थिर भी है और अस्थिर भी । इसकी लपटे बराबर ऊपर की ओर ही उठ रही है, दाये बाये को नही जाती, तथा ऊपर भी हानि वृद्धि रहित सदा उतनी ही ऊची दिखाई दे रही है, कभी वह लपट छोटी हो जाये और कभी बड़ी ऐसा दिखाई नही देता । इसलिये तो वह स्थिर है । परन्तु उतनी तथा वैसी की वैसी रहते हुए भी वह चित्र लिखितवत कूटस्थ नही है, बल्कि बराबर लहरा रही है, धक रही है, इसलिए अस्थिर है । यहा इसकी अस्थिरता वायु से ताड़ित दीपक की चचल लौवत नही है, बल्कि समान धाराप्रवाही लहरोंवत् है, इसीलिये इस अस्थिरता को नित्य भी कहा जा सकता है । ( इसी प्रकार त्रिकाली ध्रुव व निर्विकल्प व अखण्ड पारिणामिक भाव ) परिणमन स्वभावी होने के कारण बराबर धधक रहा है, चकचका रहा है | बस पारिणामिक भाव का यही त्रिकाली अनित्य स्वभाव ही प्रकृत नयका विषय है ।
अर्थात त्रिकाली द्रव्य सामान्य की ध्रुवसत्ता से निरपेक्ष, केवल उत्पाद व्यय की एक धाराप्रवाही सन्तति के रूप मे वस्तु को देखना, स्वभाव अनित्य शद्ध पर्यायार्थिक नय है । या यों कह लीजिये कि यह नय सत्ता सामान्य के नित्य अश को गौण करके उसके अनित्य अश को ही लक्ष्य मे रखता है ।
इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथित लक्षण उद्धृत करता हूँ ।