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७ पर्यायार्थिक नय ५६४
४. पर्यायार्थिक नय
विशेष के लक्षण (अर्थ - अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय चन्द्रमा सूर्य मेरु पृथिवी
पर्वत लोक आदि का प्रतिपादक है ।)
अनादि नित्य दीखने के कारण यह अनादि नित्य है । सदृश है इस लिये ध्रुव है और इसीलिये यह शुद्ध कहा जा सकता है । क्योंकि पर्याय को ग्रहण करता है इसलिये पर्यायार्थिक है। अतः "अनादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय” ऐसा इस का नाम सार्थक है । यह तो इस का कारण हुआ । सदृश परिणमन का परिचय देना इस का प्रयोजन है ।
२ सादि नित्य (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय --
जैसा कि पहिले बताया जा चुका है, क्षायिक भाव सादि अनन्त या सादि नित्य पर्याय होती है, क्योकि यह पर्याय जीव मे कभी उत्पन्न तो अवश्य होती है पर इस का विनाश कभी नही होता हैजैसे सिद्ध भगवान । यह पर्याय जीव मे ही होनी सम्भव है, पुद्गल मे नही क्योकि पुद्गल की पूर्ण शुद्ध पर्याय या उस का क्षायिक भाव स्कन्ध से परमाणु बनना है स्कन्ध से परमाणु पथक हो कर शुद्ध बन तो जाता है पर वह सदा परमाणु ही रूप से पड़ा रहेगा यह निश्चिय नही । आगे पीछे वह पुन. स्कन्ध बनकर अशुद्धता को प्राप्त हो जाता है । अत: पुद्गल मे यह सादि नित्य पर्याय देखने को नही मिलती। इस क्षायिक भाव रूप सादि अनन्त पर्याय को ग्रहण करने वाले नय को सादि नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहते है । इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथिक उद्धरण देखिये ।
१. वृ न. च।२०१ "कर्मक्षयादुत्पन्नोऽविनाशी यो हि कारणा
भावे । इदमेवमुच्चरन् भण्यते । स सादि नित्य नयः ।२०१॥"