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१७ पर्यायार्थिक नय
का अन्त दिखाई देता है अत वह सान्त है । इस प्रकार एक साधारण ससारी जीव की अशुद्धता, वह ही है उसका औदयिक भाव, वह अनादि सान्त है । जड या पुद्गल की अनादि सान्त कोई पर्याय प्रतीति मे नही आती, क्योकि परमाणु पृथक हो होकर पुन पुन बन्धता रहता है ।
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३. पर्यायार्थिक नय के भेद प्रभेद
सादि अनन्त पर्याय क्षायिक भाव को कहते है, जो उत्पन्न होने के पश्चात फिर विनष्ट नही होता । जैसे सिद्ध भगवान की पूर्ण शुद्ध पर्याय किसी विशेष समय में उनके तपश्चरण आदि के द्वारा प्रगट तो अवश्य हुई थी पर उसका विनाश कभी नही होता । अर्थात उसका आदि तो है पर अन्त नही । इसलिये वह सादि अनन्त पर्याय है पुद्गल मे यह भी दिखाई नही देती, क्योंकि परमाणु शुद्ध होने के पश्चात् पुनः अशुद्ध हो जाता है ।
सादि सान्त पर्याय दो प्रकार की होती है--क्षण मात्र को रह कर समाप्त हो जाने वाली तथा अधिक काल तक रह कर समाप्त होने वाली | क्षण मात्र स्थायी भी दो प्रकार की है -- एक समय मात्र स्थिति को रखने वाली तथा ७।८ ( सैकेन्ड) टिकने वाली । एक समय मात्र टिकने वाली पर्याय तो प्रत्येक गुण के प्रतिक्षण के स्वाभाविक परिवर्तन को कहते है, जो स्थूल ज्ञानियो की दृष्टि मे नही आ सकता । यह तो केवल ज्ञान के ही गम्य है । इसे षट् गुण हानि वृद्धि रूप स्वाभाविक क्षणिक पर्याय या सूक्ष्म अर्थ पर्याय कहते है । कुछ क्षण स्थायी पर्याय औपशमिक भाव रूप है | श्रद्धा व चरित्र मे यह बात कदाचित सम्भव है कि यह पूर्ण निर्मल दशा मे सात या आठ क्षण के लिये रहकर पुन मलिनता को प्राप्त हो जाते है । यह औपशमिक भाव भी इतने थोडे समय के लिये रहता है कि हम स्थूल ज्ञानी उसे नहीपकड़ सकते, अवधि ज्ञान के द्वारा कदाचित वह पकड़ी जानी सम्भव है । पुद्गल में भी यह अवश्य