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३. वस्तु व ज्ञान सम्बन्ध
२. वस्तु अनेकागी है
उष्णत्व वहां है उसी प्रकार' की शीतलत्व यदि मैं कहूँ तो अवश्य ही विरोध ठीक होगा, पर उप्णत्व किसी और प्रकार की और शीतलत्व किसी और प्रकार कहूँ तो विरोध का काम नही, जैसा कि पहिले आप स्वीकार कर चुके है। बस इसी प्रकार सर्वत्र समझना । प्रत्येक वस्तु मे परस्पर विरोधी अंग वास करते है, पर वे विरोधी अग शब्दों में ही विरोधीवत् भासते है, वस्तु मे नही । क्यों कि वहां वे विरोध एक ही प्रकार के नहीं है बल्कि भिन्न प्रकार के है। एक ही वस्तु एक रोग की औषधि होने से अमृत कही जा सकती है, और किसी अन्य रोग के लिये हानिकारक होने से विष कही जा सकती है । इसी प्रकार सर्वत्र' यथायोग्य रीति से जानना योग्य है, बुद्धि के प्रयोग की आवश्यकता है, तर्क की नही क्योंकि वस्तु का स्वभाव तर्क से दूर है। उसे तो जैसा है वैसा पढने का सहज प्रयत्न होना चाहिये उसी मे ज्ञान की सार्थकता है ।
वस्तु मे अनेक अंग देखने को मिलते है । कुछ तो ऐसे है जो सदा विद्यमान रहते है, जैसे भले ही आम कच्चा हो कि पक्का या सडा हुआ, उसमे कोई न कोई रग कोई न कोई गध कोई न कोई स्वाद अवश्यमेव रहता ही है । अर्थात् कोई न कोई सामान्य नेत्र इन्द्रिय का विषय, कोई न कोई सामान्य नासिका इन्द्रिय का विषय, कोई न कोई सामान्य रसना इन्द्रिय का विषय रहता ही है । वस्तु के इस त्रिकाली अग को तो गुण शब्द द्वारा सूचित किया जाता है । प्रत्येक गुण के अन्तर्गत भी अनेको अग देखने मे आते है जो काल क्रम से बराबर बदलते रहते है। जैसे कि कच्ची अवस्था मे आम का स्वाद खट्टा था, पकी अवस्था मे मीठा और सड़ी अवस्था मे कुछ
और सा ही हो जाता है । यद्यपि तीनो ही अवस्थाओ मे सामान्य जिव्हा इन्द्रिय का विषयभूत रस नाम का गुण वहा है, पर प्रत्येक अवस्था मे वह भिन्न-भिन्न रूप से प्रतीति' में आता है। रस गुण के परिवर्तनशील - इन खट्टे मीठे आदि अगो का नाम पर्याय है। गुणों