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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५२४
१५. अन्वय ग्राहक
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय इस नय युगल के प्रथम अग परम भाव ग्राहक नय के अत्यन्त विविक्त जो पारिणामिक भाव उसको ही वस्तु के स्वभाव रूप मे देखा था, परन्तु विचार करने पर गणो व पर्यायो से अतिरिक्त उस पारिणामिक भाव की कोई स्वतत्र सत्ता प्रतीति मे नही आती । यद्यपि दृष्टि विशेष से सर्व विकल्पो का अभाव करके एक निर्विकल्प भाव के रूप मे पढा अवश्य जा सकता है, पर गुणो आदि से पृथक उसको वस्तु मे खोजा नहीं जा सकता, क्योकि उत्पाद व्यय रूप उसकी कोई भी अर्थ क्रिया देखने में नही आती, जैसे कि ज्ञान गुण की जानन क्रिया देखने मे आती है, वह परिणामिक भाव वस्तु के उन अर्थ क्रिया कारी त्रिकाली अनेक गुणो मे ही अनुगत रूप से व्यापकर रहता है, और वहा ही उसे पढा भी जा सकता है । उदाहरणार्थ जीव के ज्ञान गुण मे या श्रद्धा गुण मे या चारित्र व वेदना गुण मे यदि झुक कर देखे तो सामान्य रूप से एक चेतना शक्ति ही दिखाई देती है, इन गुणो से पृथक वह चेतना कुछ नही है ।
अनेक विशेषो मे अनुगत तथा नित्य एक रूप भाव को ही सामान्य कहते है। द्रव्य की अपेक्षा अपने अवान्तर अनेक भेदो में रहने वाली एक जाति सामान्य द्रव्य कहलाती है । क्षेत्र की अपेक्षा अनेक प्रदेशो मे व्याप कर रहनेवाला एक सस्थान सामान्य क्षेत्र कहलाता है । काल की अपेक्षा अनेक पर्यायो मे व्याप कर रहने वाला एक सत् सामान्य काल कहलाता है । भाव की अपेक्षा अनेक गुणो व पर्यायो मे व्यापकर रहने वाला द्रव्य का एक्य भाव सामान्य भाव कहलाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव मे इन चारो मे पृथक पृथक तथा इन के समूह रूप अभेद चतुष्टय मे व्यापकर रहने वाली वस्तु की अनुगताकार वह सामान्यता ही इस अन्वय द्रव्याथिक नय का विषय है ।
इस से पूर्व वर्ती परम ग्राहक नय मे इन सर्व भेदो से वस्तु स्व'भाव की व्यावृत्ति दर्शाई गई थी, और इस अन्वय ग्राहक नय में