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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५१८ १४ परम भाव ग्राहक शुद्ध
द्रव्यार्थिक नय वस्तु का पुर्ण निर्विकल्प व निर्द्वन्द तथा उपरोक्त सर्व द्वैतरूप भावो से विविक्त वह त्रिकाली भाव क्या है, यह विचारने जाते है तो न गुणो मे ही वह योग्यता दिखाई देती है और न पर्यायों मे ही। पर्याय तो अनित्य होने के कारण तथा गुण अपनी पर्यायो से कल कित रहने के कारण निर्विकल्प व निद्वन्द नही कहे जा सकते । इसी प्रकार उत्पादादि भाव भी इस कोटिम ग्रहण नहीं किये जा सकते । अब शेप रहा वस्तु का पारिणामिक भाव, सो दृष्टि वहां ही जा कर ठहरती है। क्योकि यह भाव ही, जैसा कि पहिले भली भाति बताया जा चुका है, अत्यन्त विविक्त है। इसमे न अनेक स्वभावी पने को अवकाश है, न प्रदेशो की कोई अपेक्षा है । इसको न काल से सीमित किया जा सकता है और न भाव से इस मे न शुद्धता देखी जा सकती है और न अशद्वता । इसमे न गुण प्रतिष्ठित हो पाते है और न पर्याये । इस मे न उत्पाद होता है न व्यय । इन सर्व विकल्पो से व्यावृत वह तो एक अखण्ड व नित्य शुद्ध भाव है, जिस मे न आदि है, न मध्य या अन्त । अर्थात गुण व पर्यायो आदि का निपेध करने के अतिरिक्त जिस का कोई विधि आत्मक लक्षण ही किया नहीं जा सकता, ऐसा व पारिणामिक भाव ही वस्तु के स्वभाव का असल प्रतिनिधि है ।
वस्तु का वस्तु पना देखे तो क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध । वह तो जव भी जहा भी जिस अवस्था मे भी देखो वस्तु पना ही है । जैसे स्वर्णत्व का क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध, क्या हीन व क्या अधिक । वह तो जब देखो स्वर्णत्व ही है, जिस भी स्वर्ण के जेवर मे देखो स्वर्णत्व ही है । एक रत्ती स्वर्ण मे भी उतना तथा वह ही है और १० तोले के जेवर में भी उतना तथा वह ही है। 'त्व' प्रत्यय ही जिसका लक्षण है, वही निर्विकल्प तथा अत्यन्त विविक्त पारिणामिक भाव है।
यदि द्रव्य सामान्य के स्वभाव को देखना है तो उसकी सम्पूर्ण शुद्ध व अशुद्ध पर्यायो को अथवा गुण कृत भेदों को दृष्टि से ओझल