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३. वस्तु व ज्ञान सम्बन्ध
३३ १. अल्पज्ञता की बाधकता
“पक्षपात व एकान्त की कठोरता व एकात --है। इसको दूर करके अग्नि के ज्ञानवत जो कोई भी बात सरल रीति से जैसी है वैसी स्वीकार करने की भावना का नाम ही ज्ञान की सरलता है। वही अनेकात है । सो कैसे, वह स्पष्ट किया जायेगा। अग्नि उष्ण, है यह तो आप सब स्वीकार करते ही हैं, पर अग्नि शीतल है यह कैसे स्वीकार करेगे? फिर भी मै जब ऐसा समझाता हूँ-कि देखो आपका हाथ जल जाये तो आप उसका उपचार कैसे करते है ? अग्नि पर सेक कर । भले ही उस समय कुछ जलन सी प्रतीत हो पर आगे जाकर उसकी जलन बजाय बढ़ने के शान्त हो जाती है, और आपके हाथ मे उस स्थान पर आवला पड़ने नही पाता । बस दाह को शान्त करने की यह शक्ति-अग्नि मे है, इसी को अग्नि की शीतलता समझो; जलवत शीतल कहने का अभिप्राय नहीं है । तब आप सरलता से उसे स्वीकार कर लेते हो, क्योकि वह बात आप प्रत्यक्ष देख रहे है । इसी प्रकार हिम मे जलाने की शक्ति है जो सर्दी के दिनों में कोमल कोमल पौधो को जलते हुए देखकर प्रतीति मे आती है । सो भी आप यथायोग्य रूप मे अवश्य स्वीकार कर लेते है। और इसी प्रकार प्रत्येक दृष्ट पदार्थ के सम्बन्ध मे दो परस्पर विरोधी बातों को आप यथायोग्य रूप में सहज स्वीकार कर लेते है। पर आत्मा पदार्थ के सम्बन्ध मे परस्पर विरोधी बाते आपके गले उतरनी कठिन पड़ती है। उसी के फल स्वरूप आज बडे बड़े विद्वान भी परस्पर मे एक दूसरे पर आक्षेप कर करके उनका विरोध करने में ही अपना समय व जीवन बर्बाद कर रहे है । दैनिक व साप्ताहिक पत्र उनके आन्तरिक द्वन्द का युद्धक्षेत्र बनकर रह गये हैं। एक केवल उपादान उपादान की रट लगा रहा है। और दूसरा केवल नैमित्तिक भावों या निमित्तो की । एक ज्ञान मात्र की महिमा का बखान करके केवल जानने जानने की बात पर जोर लगा रहा है, और दूसरा केवल व्रतादि बाह्य चारित्र रखने की बात पर । इतना करने में भी कोई हर्ज न हुआ होता यदि यह ही बातें एक दूसरे का निषेध करती हुई प्रगट न हुई होती । परन्तु यहां तो अपने मत