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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य
विशेष सर्वथा निर्विकल्प होता है क्योकि उसमे अन्य विशेष नही रहते, परन्तु सामान्य कथञ्चित सविकल्प होता है, क्योकि उसमे अनेकों विशेष रहते है । इस सविकल्प सामान्य को दो प्रकार से पढा जा सकता है - विशेषो से निरपेक्ष, तथा विशेषो से सापेक्ष उदाहरणार्थ '' गुण व पर्याय वाला द्रव्य होता है" द्रव्य का ऐसा लक्षण करना गुण गुणी आदि भेदो या विशेषो से सापेक्ष है, और गुण पर्याय वाला न कहकर " द्रव्य तो स्वलक्षण स्वरूप स्वयं द्रव्य ही है" ऐसा कहना विशेषों से निरपेक्ष है । इन दोनों में विशेष निरपेक्ष सामान्य द्रव्य की ही सत्ता को स्वीकार करने वाली दृष्टि द्रव्याथिक है और विशेष सापेक्ष सामान्य द्रव्य की सत्ता की स्वीकृति अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है ।
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५. शुध्द
द्रव्यर्थिक
नय
विशेष निरपेक्ष सामान्य द्रव्य को द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा ऐसा कहा जा सकता है:
द्रव्य की अपेक्षा उसे गुण पर्याय वान या उत्पाद व्ययध्रुव स्वरूप कहना ठीक नही है, क्योकि वह वास्तव मे गुण व पर्याय के कारण दृयात्मक अथवा उत्पादादि के कारण त्रयात्मक नही है, वह तो अनिर्वचनीय अखण्ड तथा एक है । क्षेत्र की अपेक्षा उसे अनेक प्रदेश वाला कहना युक्त नही है, क्योकि अनेक प्रदेश कल्पना मात्र है, पृथक पृथक सत् नही है, अतः वह तो अखण्ड किसी निज संस्थान या आकार रूप ही है । काल की अपेक्षा उसे भूत वर्तमान भविष्य वाला कहना युक्त नही है, क्योकि इन तोनो कालों सम्बन्धी अपनी पर्यायो सहित रहने वाले किन्ही तीन पृथक द्रव्यो की सत्ता लोक मे नही है, अत वह तो इन सर्व पर्यायों में अनुगत कोई एक त्रिकाली नित्य तत्व ही है । भाव की अपेक्षा अनेक गुणों वाला कहना युक्त नही है, क्योकि द्रव्य से पृथक अनेक गुणों की सत्ता नही है, अत . वह तो स्वलक्षणभूत किसी निज अखण्ड एक भावस्वरूप