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४. द्रव्यार्थिक नय
१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य
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उसे पृथक पृथक स्वतत्र सत् मान बैठते हैं, जैसे कि चाग्यि को ज्ञान से और ज्ञान को चारित्र से पृथक मानने में आ रहा है। वास्तव मे ज्ञान है सोई चारित्र हे और चारिन हे सोई ही ज्ञान है । ज्ञान के विना चारित्र नही और चारित्र के बिना ज्ञान नहीं । आगे पीछे कुछ है नही दोनो एक समय मे हे । पर यह रहस्य कैमे समझा जाये । कुछ कठिन समस्या है । यहा यह समझाने का प्रकरण नहीं है। इस बात का कुछ स्पप्टी करण यदि देखना चाहते है तो इसी लेखक द्वारा निर्मित "शान्ति पथ द्रदर्शन" नाम के ग्रन्थ में देखने को मिल सकता है।
यहा तो केवल इतना निर्णय करना है कि द्रव्याथिक नय वस्तु का रहस्यार्थ समझने के लिये कितना उपकारी है । और इसी लिये आगम मे सर्वत्र इसी पर जोर दिया गया है, इसी को भूतार्थ वताया गया है । और भेदो को प्रति पादन करने वाले व्यवहार नय को अभूतार्थ वताया है । कारण यही है कि यदि वस्तु के रहस्यार्थ को जानना है तो उसे अखण्ड रूप से एक रस करके जानने का ही प्रयत्न कीजिये । खण्डित उन अगो की सत्ता इस लोक मे है ही नहीं। उन सर्व अगो की स्वतत्र सत्ता आकाश पुष्पवत है। इसी लिये उनका खण्डित ग्रहण अभूतार्थ है । द्रव्याथिक का महान उपकार अब तेरी दृष्टि में आ गया होगा ऐसी आशा है। द्रव्याथिक नय के लक्षण पर अनेको गकार्य होनी सम्भव है सो यथा स्थान समाधान किया जाता रहेगा ।
१६ शुद्धा शुद्ध द्रव्याथिक नय
दिनांक १२-१०-६० यद्यपि द्रव्याथिक नय केवल अभेद के प्रति संकेत करता है, ४ द्रव्यार्थिक और इसलिये इस नय के कोई भेद प्रभेद नहीं नय के होने चाहिये, परन्तु इसका विशेप रूप दर्शाने
के लिये आगमकारो ने इसके भी भेद कर दिये
भेद