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३. द्रव्यार्थिक नय सामान्य के कारण व प्रयोजन
१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४७०
पर्याये मानो उसके लम्बे इतिहास मे उत्कीणी ही गई हों, ऐसा होता
है । इसलिये उस द्रव्य की पूर्णत देखने वाली दृष्टि भी ऐसी ही होनी चाहिये । यही कारण है कि द्रव्य को ग्रहण करने वाली इस दृष्टि को तथा इसका प्रति पादन करने वाले इन अभेद सूचक लक्षणों को द्रव्यार्थिक नय कहा जाता है । बस या इस प्रकार के लक्षण करने का कारण है ।
यही इस नय का
इस नय का प्रयोजन जिज्ञासु श्रोता या पाठक को वस्तु का यथार्थ या भूतार्थं परिचय दिलाना है । अर्थात् जैसी वस्तु एक रस रूप अखड है वैसा ही चित्रण ज्ञान मे आना चाहिये, इससे विपरीत नही । यह इसका प्रयोजन है । वक्ता या लेखक इस बात को भूला नही है, कि उसने वस्तु की व्याख्या करते या उसे लिखते हुये क्या क्रम अपनाया है । एक एक अंग को पृथक पृथक आगे पीछे ही कहने व लिखने मे आया है । यदि इतना ही करके छोड दे तो श्रोता के ज्ञान पर कैसा चित्रण बना रहेगा, यह भी उसे पता है । श्रोता बेचारा बिल्कुल अनभिज्ञ है । वह उतना और उस प्रकार ही तो स्वीकार कर सकता है जितना और जिस प्रकार कि वक्ता उसे बताता है । उसके अतिरिक्त अपनी तरफ से वह उस बताये हुये मे हीनाधि - कता कैसे कर सकता है । और यदि ऐसा करने का प्रयत्न भी करेगा तो वह उसकी मर्जी से किया गया ग्रहण क्या उसके लिये सदा सशय का स्थान न बना रहेगा ?
यहा यह प्रश्न हो सकता है, कि जितने भी दृष्टात अव तक देने मे आये है उन सब में ही व्याख्या का उपरोक्त क्रम रहा है । फिर भी श्रोता या पाठक को कोई भ्रम होने नही पाया है । उष्णता, दाहकता आदि रूप से भेद करके की गई व्याख्या पर से भी श्रोता ठीक ठीक अभेद अग्नि को ही समझ पाया है, इसके पदार्थ का चित्रण उसके ज्ञान पट पर नही
स्थान पर किसी और खिचा है । अभेद कहे