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________________ १५. शब्दादि तीन नय ४४८ १२. तीनो का समन्वय (iii) शब्द नय मे एक शब्द के अनेक वाच्य अर्थ होने सम्भव है पर समभिरूढ नय मे एक शब्द का कोई एक रूढ' या प्रसिद्ध अर्थ ही ग्राह्य है, इसलिये यहा एक शब्द का एक ही अर्थ होता है, जैसे 'गो' शब्द का अर्थ यहा पशु विशेष ही है, और शब्द नय मे इसी का अर्थ वाणी व पृथिवी भी स्वीकृत है। ( iv) ऋजुसत्र के विपय मे लिङ्गादि के विषय भेद से भेद करने वाला शब्द नय है और शब्द नय से स्वीकृत समान लिङ्ग कारकादि वचन वाले उन शब्दो मे व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद करने वाला समभिरूढ है। जैसे परम ऐश्वर्य का भोग करने के कारण इसे इन्द्र कहते है केवल नाम मात्र से नही । यद्यपि शब्द नय भी इसी शब्द का प्रयोग देवराज के लिए करता है पर उपरोक्त व्युत्पत्ति क भेद रखे विना नाम निक्षेप मात्र से या रूढ़ि मात्र से कर देता है, परन्तु समभिरूढ नय इसमे निरूक्ति गम्य विवेक जागृत करके इसे सार्थक बना देता है, काल्पनिक रहने नही देता । शब्द भले बदले न वदले पर भाव आवश्य बदल जाता है। ३ प्रश्न-ऋजु सूत्र नय व समभिरूढ नय मे क्या अन्तर है ? उत्तर - विषय की अपेक्षा कोई अन्तर नही क्योकि उसकी विषय भूत व्यञ्जन पर्याय ही इसका वाच्य है । अन्तर केवल इतना है कि ऋजुसूत्र अर्थ प्रधान है और समभिरूढ नय शब्द प्रधान । अर्थात वह तो अपने विषय भूत पर्याय का सज्ञाकरण करते समय सार्थक व अनर्थक पने की अपेक्षा से रहित प्रवति करता है, पर यह नय उसको केवल अन्वर्थक ही नाम देता है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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