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१५. शब्दादि तीन नय ४२५ ८ . समभिरुढ नय का
लक्षण अर्थ-पर्याय शब्दो मे निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को कहना
समभिरूढ नय है। जैसे ऐश्वर्यवान होने से इन्द्र, समर्थ होने से शत्र, और नगरो का विभाग करने वाला होने से पुरन्दर कहना । पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ नयाभास है। जैसे करि, कुरग व तुरग अर्थात हाथी, हिरण व घोड़ा परस्पर भिन्न है, वैसे ही, इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दों को भी सर्वथा भिन्न
मानना समभिरूढ़ाभास है। २ आ. प. 1१६ प ० १२५ "परस्परेणाधिरूढा समभिरूढ़ा शब्द
भेदेऽप्यर्थभेदो नास्ति । यथा शक इन्द्रः पुरन्दर इत्यादय
समभिरूढाः।" अर्थ:--परस्पर में अभिरूढ शब्दो मे भेद होते हुए भी जो उन
में कथाञ्चित अर्थ भेद स्वीकार नही करता वह समभिरूढ नय है । जैसे शक्र, इन्द्र व पुरन्दर ये तीनो शब्द यद्यपि भिन्न है, और इनका व्युत्पत्ति अर्थ भी भिन्न है, पर तीनो ही एक देव राज के वाचक रूप से प्रसिद्ध है।
(वृ० न० च ।२१५)
३. स. म ।२८।३२० ।५ प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थ प्रति जानानाद् एव
भूतात् समभिरूढस्तदन्यथार्थस्थापकत्वाद् महार्थगोचरः ।"
क्रमश--
स म ।२८ ।३१४।१६ “परमैश्वर्यम् इन्द्रशब्दवाच्य परमार्थस्तवृत्यर्थे ।
अतद्वत्यर्थेपुनरूपचारतो वर्तते ।" अर्थ-समभिरूढ से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु
मे भेद मानना एक भूत है, जैसे समभिरुढ की अपेक्षा पुरन्दर