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१५ शब्दादि तीन नय ४२४
८ समभिरूढ नय का ।
लक्षण अर्थः--समभिरूढ नय की अपेक्षा से शब्दभेद के कारण निश्चित
रूप से अर्थ मे भेद होता ही है। इसी प्रकार अर्थभेद से शब्दभेद भी सिद्ध ही है । अन्यथा पदार्थ व शव्दके बीच वाच्यवाचक नियम के व्यवहारका लोप हो जायेगा।
६ का अ।२७६ “य एकैकमर्थ परिणतिभेदेन साधयतिज्ञान। ___ मुख्यार्थ व भाष यति अभिरूढत नय जानी हि ।२७६।"
अर्थ -- जो नय वस्तु को परिणाम के भेद से एक एक भिन्न
भिन्न भेदरूप सिद्ध करता है अथवा उनमे से मुख्य अर्थ को ग्रहण करके सिद्ध करता है उसको समभिरूढ नय जानना चाहिये।
नय चक्रगद्य पृ १८७ "शब्दभेदेन चार्थस्यभेद तथ्य करोति यः।
अर्थभेदात्तथा तस्य भेद समभिरूढक ।"
अर्थः- शब्दभेद के द्वारा जो अर्थ भेद को भी ग्रहण करता है,
उसी प्रकार अर्थ भेद से शब्द भेद को जो ग्रहण करता है वह समभिरूढ नय है।
२ लक्षण न० २ (रूढि वश पर्यायवाची शब्दों में एकार्थता) -
१. स म. २८ ॥३१८ २८ "पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ
समाभिरोहत् समभिरूढ.। इन्दनादिन्द्र. शकनाच्छन , पूर्दारणात्पुरन्दर इत्यादिषु यथा। पर्यायध्वनीनाममिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभासः । यथेन्द्र. शक्र पुरन्दर इत्यादय शब्दा भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवद् इत्यादिः ।”