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१५. राथ्दादि तीन नय
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६.शब्द नय का लक्षण
हंसी में 'मन्य' पद अपपद मे रहने पर अर्थात प्राप्त होनेपर मन्य धातु से उत्तम पुरुष में एकवत् हो जाता है। ऐसा व्याकरण सूत्र है। (परन्तु यह नियम व्यभिचारी होने के कारण अयुक्त है।)
'आओ। मानता हूँ तू रथ द्वारा जायेगा, नही जायगा, तेरा पिता चला गया' इस प्रहास में यथा प्राप्त जो प्रतिपत्ति है व प्रसिद्ध अर्थ से विपरीत अर्थ करने मे कारण नहीं कही जा सकती । 'रथ से जायेगा' इस प्रकार भाव गमन के कहने से हसी जानी जाती है, और 'नहीं जायेगा' ऐसा कहना निपिद्ध होता है। अनेक हसने वालों में प्रत्येक प्रत्येक की ही हंसी के प्रति सकेत करने के वश से एक वचन का प्रयोग ही युक्त है । 'लौकिक प्रयोग का अनुसरण करना चाहिये' इस तरह की प्रकारान्तर रूप कल्पना करना भी न्याय संगत नही है।
इन्नो. वा. १।३।७२ “यस्तु व्यवहार नय. कालादिभेदेऽपि
अभिन्नमर्थमभिप्रैति तमनूद्य दूषयन्नाह ।"
अर्थः-व्यवहार नय तो कालादिभेदों के रहते हुए भी उन शब्दों
का अभिन्न या एक ही अर्थ ग्रहण करता है । यह शब्द नय उसमे दोष निकालकर भिन्न लिग आदि वाचक
शब्दों का भिन्न भिन्न अर्थ ग्रहण करता है। ६. का अ. १२७५ "सर्वेषां वस्तूना संख्यालि गादि बहुप्रकारैः ।
___य साधयति ज्ञानत्व शब्दनय तं विजानीहि ।२७५। अर्थ --जो नय सब वस्तुओं के संख्या लिग आदि अनेक प्रकार
से अनेकत्व को सिद्ध करता है उसको शब्द नय जानना चाहिये।