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१५. शब्दादि तीन नय
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६. शब्द नय का लक्षण
यहां शका हो सकती है कि इस प्रकार तो लौकिक व्याकरण या शब्द व्यवहार का लोप हो जायेगा । सो इसका उत्तर आगमकारों न निम्न प्रकार दिया है
स. सि ।१।३३ ॥५३४ "लोकसमयविरोव इति चेत् ? विरुध्यताम् ।
तत्त्वमिह मीमास्यते, न भैपज्यमातुरेच्छानुवति ।"
शंका -इस से लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध
हो जायेगा ? उत्तर --यदि विरोधहोता है तो होने दो, इससे हानि नही, क्योकि
यहा तत्व की मीमासा की जा रही है । दवाई कुछ पीडित
पुरुषो की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। (रा. वा ।१।३३ ।६।६८ १२५)
अतः समान लिग व सख्या वाले शब्दो मे ही एकार्थ वाचकता बन सकती है, जैसे इन्द्र, पुरन्दर, शक्र यह तीनों शब्द समान पुल्लिगी होने के कारण एक 'शचीपति' के वाचक है, ऐसा शब्द नय कहता है।
तात्पर्य यह कि काल कारक लिग संख्या वचन और उपसर्ग के भेद से शब्द के अर्थ मे भेद मानने को शब्द नय कहते है । जैसे बभूव भवति भविष्यति अर्थात होता था, होता है, होगा । ऐसे भिन्न काल वाचक करोति, क्रियते अर्थात करता है, किया जाता है ऐसे भिन्न कारक वाची; तट, तटी, तटम् ऐसे भिन्न लिगी; दारा कलत्रम् ऐसे भिन्न सख्यावाची ‘एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' अर्थात 'तुम समझते हो कि मै रथ से जाऊगा, इत्यादि, ऐसे भिन्न पुरुप वाची, सतिष्ठते, अवतिष्ठते ऐसे भिन्न उपसर्ग वाले शब्द व्याकरण में प्रसिद्ध है । इसका यह अर्थ भी न समझ लेना कि काल