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शब्दादि तीन नय
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४. वचन के दो प्रकार
अर्थ क्रिया हो रही है उसी की अपेक्षा रखकर उसे नाम देती है । जैसे समभिरूढ नय की अपेक्षा पुरन्दर व शचीपति इन्द्र में शब्द गम्य या व्युत्पत्ति गम्य भेद होने पर भी नगरों का विभाग करने की क्रिया न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवभूतनय की अपेक्षा नगरों का विभाग करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त भी समभिरूढ नय वर्ण भेद से पर्याय के भेद को स्वीकार नहीं करता, एवभूत अनेक पदो का समास और 'ध', 'ट' आदि अनेक वर्णों का समास करके शब्द बनाना स्वीकार नही करता । अत इस अत्यन्त सूक्ष्म एवभूत नय से समभिरूढ नय का विषय अधिक है ।
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इन तीनो नयो मे एक पदार्थ के वाचक अनेक पर्यायवाची शब्दों को स्वीकार करने वाला शब्द नय कोपकार को इष्ट है । व्युत्पत्ति की अपेक्षा एकार्थं वाची शब्दों मे अर्थ भेद देखने वाला समभिस्ट नय वैयाकरणियो को इष्ट है, और तत्क्रिया परिणत पदार्थ को उस समय के योग्य एक ही नाम देने वाले एव भूत को निरुक्तिकार पसंद करता है ।
व्यवहारिक भाषण व व्याकरण मे दो प्रकार के शब्दों का प्रयोग ४ वचन के दो करने मे आता है-अभेद वाची व भेद वाची
प्रकार
अर्थात सामान्य व विशेष । एक अर्थ के प्रति अनेक पर्यायवाची शब्द सामान्य है और अर्थ प्रति अर्थ निश्चित किये गये शब्द विशेष है । उसी का परिचय निम्न उद्धरण में दिया गया है।
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१ रा. वा ।४।४२।१७ ।२६१ ।११ " व्यञ्जन पर्यायास्तु शब्दनया द्विविध वचन प्रकल्पयन्ति-अभेदेनाभिधान भेदेन च । यथा शब्दे पर्याशब्दान्तर प्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद | समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एव