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________________ १४ ऋजु सून नय ३७० ४. ऋजु सूत्र नय के भेद प्रभेद व लक्षण तथा लाल रग अथवा इन्द्रिय ज्ञान रूप स्वरूप लक्षण भूत कोई एक स्वभाव स्वरूप घट, पट अथवा मनुष्यादि पदार्थ स्थल सत् है । यद्यपि इन स्थल सतों को विशेष कहने को जी नही करता क्योकि ये स्वय अन्य विशेपो से सहित दीखते है, जैसे कि जन्म से मरण पर्यन्त तक की मनष्य की एक स्थिति मे बालक, युवा व बूढापे आदि के अथवा अत्यन्त सूक्ष्म क्षण वर्ती अर्थ पर्यायो के अनेकों अवान्तर विशेप पड़े है, उसके वर्तमान सस्थान में साक्षात सावयव पने व असख्यात प्रदेशीपने के विशेप दिखाई देते है उसके इन्द्रिय ज्ञान मे भी अवग्रह ईहा आदि के अथवा सूक्ष्म अर्थ पर्यायो के अनेको विषय प्रतीति मे आ रहे हैं । इसलिये इन अवान्तर विशेषो की अपेक्षा देखने पर तो वह सामान्य स्वरूप वाला दिखाई देता है, और इसलिये संग्रह नय का विषय बनाया जा सकता है, परन्तु सूक्ष्म विचारणाओं व तर्कणाओ को दवाकर यदि लौकिक व्यवहार दृष्टि से देखे तो ये सर्व विशेप ओझल हो जाते है । यदि जीव द्रव्य सामान्य को न देखे तो जन्म से मरण पर्यन्त का मनुष्य दो है या एक ? उसका आकार या सस्थान अनेक है कि एक ? उसकी ८० वर्प प्रमाण स्थिति एक है कि अनेक ? उसका जानने का स्वभाव एक है कि अनेक ? इस प्रकार प्रश्न करने पर लौकिक जन 'एक' ऐसा ही उत्तर देते है । मनुष्य तो एक है ही, उसका सस्थान भी यद्यपि सावयव है परन्तु क्या वे अवयव पृथक पृथक रह कर सयोग को प्राप्त हुए है, या वह जैसा है वैसा अखण्ड है ? यदि अवयवो को पृथक पृथक माना जायेगा तो मनुष्य को अनेकता का प्रसग प्राप्त होगा अत उसका वह अखण्ड सस्थान एक ही है । उसकी स्थिति भी एक ही है, क्योकि उस मनुष्य का इस स्थिति से पहिले विनाश देखा नही जाता। उसका वह ज्ञान भी पूर्ण स्थिति काल पर्यन्त वह का वही रहता है । इसलिये द्रव्य से या क्षेत्र से या काल से या भाव से वह एक ही सिद्ध होता है । इस
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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