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१४. ऋजु सूत्र नय ३४२
२. ऋजु सूत्र नय
सामान्य के लक्षण विशष नही । अतः विशेष ग्राही दृष्टि मे द्रव्य व पर्याय ये दो वाते ही दिखाई नहीं दे सकती।
पर्याय का नाम ही कर्म या कार्य है । पर्याय के अभाव में किसी भी पदार्थ में कर्म व कार्य भी कैसे देखा जा सकता है । कर्म ही नही तो कर्ता किसे कहे, क्योकि कर्ता स्वयं कर्म की अपेक्षा रखकर अपना प्रकाश करता है। कार्य ही नही तो कारण किसे कहें, क्योकि कारण स्वय कार्य की अपेक्षा रखकर अपना प्रकाश करता है ।
कर्ता-कर्म व कारण कार्य भाव का व्यवहार दो प्रकार से करने मे आता है-निमित्त नैमित्तिक द्वैत के रूप मे और उपादान उपादेय के रूप में। निमित्त कर्ता या कारण पर पदार्थ को कहते है ।
और नैमित्तिक विवक्षित पदार्थ के कार्य या पर्याय को कहते हैं । जहा व्यक्तिगत प्रत्येक पदार्थ स्वतत्र व एक दूसरे से निर्पेक्ष है, तथा विवक्षित पदार्थ मे 'पर्याय' की कोई कल्पना भी नही है तहा निमित्तिक भाव कैसे घटित हो सकता है ? उपादान उपादेय भाव दो प्रकार से माना जाता है-त्रिकाली वह द्रव्य कर्ता या कारण है और उसकी विवक्षित समय की एक पर्याय कार्य है, तथा उसी द्रव्य की पूर्व समय वर्ती पर्याय कारण है और उत्तर समय वर्ती पर्याय कार्य है । जिस दृष्टि मे द्रव्य व पर्याय का भेद नही उसमे पहिले प्रकार से उपादान उपादेय भाव कैसे सम्भव हो सकता है । तथा जिस दृष्टि मे पूर्व और उत्तर समय वाला काल भेद नही, जिस दृष्टि में पूर्व समय वती पदार्थ सर्वथा विनष्ट हो चुका है और उत्तर समय मे कोई नया स्वतत्र पदार्थ ही उत्पन्न हुआ है, उसमे दूसरे प्रकार से भी उपादान उपादेय भाव कैसे सम्भव हो सकता है ? अत कर्ता-कर्म या कारण काय भाव रूप द्वैत को इस दृष्टि में अवकाश नही । यहा कार्य नाम का ही कोई चीज नहीं है।
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इसी प्रकार आधार आधेय भाव मे प्रदेशात्मक द्रव्य को आधार कहते है और उसमे आश्रित अनेकों गणों व धर्मों को उसके आधय