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१३. सग्रह व व्यवहार नय ३३५
६. सग्रह व व्यवहार
नय समन्वय (अर्थ--"लोक मे ग्रहण की जाने वाली या नित्य ही जानने
व देखने मे आने वाली ही वस्तु है" ऐसा व्यवहार का लक्षण है । अदृष्ट तथा व्यवहार मे न आने वाली वस्तु की कल्पना का कष्ट करने से क्या? जो द्रव्य लोक व्यवहार पथ पर चलते है उनको ही ग्रहण करने वाले प्रमाण की उपलब्धि होती है, इसके अतिरिक्त अन्य का प्रमाण ज्ञान कुछ नही है । एक कोई अनादि निधन, संग्रह नय के द्वारा स्वीकारा गया, 'सत्' प्रमाण भूमि को स्पर्श नही करता, क्योकि (रूपो रहित) ऐसे सत् के अनुभव का अभाव है । तथा यदि एक ही सत् स्वीकारा जायेगा, तब तो प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी रूप रंग आदि देख रहा है वह उस अद्वैत सत् को ही देख रहा है । सब ही सत् को देखने के कारण सर्व दर्शी बन बैठेगे, तब तो भगवान के केवल ज्ञान की या उसके सर्व दर्शी पने की क्या · विचित्रता रही ? परमाणु लक्षण वाला कोई सामान्य ..." से पृथक- विशेष हो ऐसा भी नही है । लोक व्यवहार मे - आने . वाली ही वस्तु होती है। 'वाचस्पति उमास्वामी'
ने भी कहा है- ", "लौकिक ब्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते है ।"