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१३. सग्रय व व्यवहार नय
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_३. सग्रह नय विशष
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सग्रह नय सामान्य के उपरोक्त लक्षण पर से यह बात स्पष्टतः ३: संग्रह नय ग्रहण करने में आती है कि संग्रह नय दो प्रकार
विशेष . की सत्ता को अद्वैत रूप से विषय करता है--- महासत्ता को तथा अवान्तर सत्ता को । विषय भेद' की अपेक्षा सग्रह नय के भी इसलिये दो भेद स्वीकार किये गये हैं- 'शुद्ध सग्रह या सामान्य सग्रह तथा अशुद्ध सग्रह या विशेष सग्रह । महासत्ता ग्राहक शुद्ध संग्रह है और अवान्तर सत्ता ग्राहक अशुद्ध संग्रह है। इन दोनो के पृथक पृथक लक्षण व उदाहरण आदि देखिये।
१ शुद्ध संग्रह नयः-
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शुद्ध संग्रह नय द्रव्य क्षेत्र काल व भाव इन चारों ही अपेक्षाओं से जगद्व्यापी एक महासत्ता सामान्य को एक सर्वव्यापी नित्य अद्वैत तत्व के. रूप मे ग्रहण करता है । इस दृष्टि में उस महा सद्ब्रह्म सामान्य के अतिरिक्त इस लोक में और कुछ है ही नहीं। सद्ग्राहक इस दृष्टि मे भेद है ही कहा जो कि इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी दिखाई दे । अत अद्वैतवादियों का सर्व कथन ठीक ही हैं, क्योकि समस्त अवान्तर भेदो का समूह रूप एक अखण्ड तत्व ग्रहण कर लिया गया तब उससे अतिरिक्त उन सर्व भेद प्रभेदो की स्वतत्र सत्ता की प्रतीति को अवकाश कहां रह गया इस दृष्टि से देखने पर सर्व चेतन व अचेतन पदार्थ एक सत् जाति मे गभित हो जाते है । अतः समस्त विश्व एक रूप दीखने लगता है । इस प्रकार एक सामान्य सत् से अतिरिक्त चेतन आदि अवान्तर भदों की भिन्न सत्ता कैसे देखी जा सकती है ? इसी दृष्टि को शुद्ध द्रव्याथिक नय भी कहते है। सदद्वैत वादियो के सिद्धान्त का आश्रय यही दृष्टि है । सो इस दृष्टि या नय से देखने पर उनका सिद्धात बिल्कुल सत्य है, यदि वे आगे आने वाली व्यवहार दृष्टि का निषेध न करे तो। __ अव इसी लक्षण की पुष्टि मे निम्न उद्धरण देखिये -