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१३ संग्रह व व्यवहार नय
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२. सग्रह नय सामांन्य
अशेषविशेष तिरोधानद्वारेण
१ स. म. ।२८।३११ 1७ “ सग्रहस्तु सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते ।"
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- ( अर्थ - सग्रह नय सम्पूर्ण विशेष धर्मों की अपेक्षा को छोड़कर उनके तिरोधान द्वारा, सामान्य धर्म की मुख्यता लेकर जितने मे वह सामान्य धर्म रहता हो, उस सम्पूर्ण विषय को ग्रहण करता है । इस प्रकार 'सत्' कहकर सर्व विश्व को, 'जीव' कह कर सम्पूर्ण जीवो को, 'घट कह कर सम्पूर्ण घटो- को ग्रहण कर लेता है ।
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वा. 1१।३३।५।६५ स्वजात्यविरोधेन एकत्वोपनयात् । केषाम् ? भेदानाम् 1. समस्तग्रहण संग्रहोयथा 'सत्' 'द्रव्य' 'घट' इति । 'सत्' इत्युक्ते सत्तासबन्धार्हाणा: द्रव्यपर्यायद्भदप्रभेदाना तद्रव्यतिरेकात् तेनैकत्वेन संग्रहः । 'द्रव्यम्' इति ' चोक्तेः जीवाजीवतभ्देदप्रभेदाना द्रव्यत्वाविरोधात्तेनैकत्वेन सग्रह' । 'घट' ' इति चोक्ते नामादि भेदात् मृत्सुवर्णादिकारणविशेषाद् वर्णसस्थानादिविकाराच्च भिन्नाना घटशब्दवाच्यानां तदव्यतिरेकादेकत्वेन संग्रहः । "
( अर्थ. - अपनी अपनी जाति की वस्तुओं को अविरोध रूप से उनके सर्व भेदो मे एकत्व का ग्रहण होने के कारण, समस्त भेदो को एक रूप में ग्रहण करे सो सग्रह नय है । जैसे 'सत् ‘द्रव्य' 'घट' व इत्यादि कहना । 'सत् ऐसा कहने पर सत्ता के सम्बन्ध से जिनकी प्रसिद्धि होती है ऐसे द्रव्य पर्याय व उनके भेद प्रभेदो का, उस सत् से भेद न होने के कारण उसको एक-सत् रूप से ग्रहण करना - संग्रह है । 'द्रव्य' ऐसा कहने पर, जीव अजीव तथा उनके भेद प्रभेदो को द्रव्यत्व के साथ अविरोध द्वारा उसको एक द्रव्य रूप से
ग्रहण करना संग्रह है । 'घट' ऐसा कहने पर, नामादि के
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