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१२. नैगम नय
४. द्रव्य नैगम नय . . .- - . . पर से अदृष्ट का अनुमान किया जाता है अत वही मुख्य है । सर्वत्र यही लक्षण व लक्ष्य मे गौण मुख्य व्यवस्था का नियम है।
तहां देखना यह है कि लक्षण किस नय का विषय है और लक्ष्य किस नय का है। उपरोक्त उदाहरणो मे लक्षण शुद्ध या अशुद्ध द्रव्याथिक नय के विपय है, क्योंकि 'सत्' ऐसा लक्षण अभेद का वाचक होने के कारण शुद्ध है और 'गुण पर्याय वान' ऐसा लक्षण भेद का वाचक होने के कारण अशुद्ध है । लक्ष्य जो द्रव्य वह तो स्वय द्रव्य है ही, अत. वह भी द्रव्याथिक का ही विषय रहा । इस प्रकार ऊपर द्रव्याथिक का विषय ही लक्षण है और द्रव्याथिक का विषय ही लक्ष्य है । द्रव्याथिक के विषयभूत लक्षण पर से द्रव्याथिक ही के विषयभूत लक्ष्य को समझा या समझाया जा रहा है। इसीको कहते है द्रव्य पर से द्रव्य का संकल्प या विचार करना ।
क्योकि दोनो मे से लक्षण को गौण व लक्ष्य को मुख्य किया जाता है, इसलिये यह द्वैत मे अद्वैत या अनेकता में एकता का संकल्प कहलाता है। इस प्रकार द्वैत मे अद्वैत और अद्वैत मे द्वैत उत्पन्न करना ही सर्वत्र नैगम नय का लक्षण है। तहां द्रव्य पर से द्रव्य के सकल्प का या द्रव्याथिक नय के विषय परसे द्रव्याथिक नय के ही विषय के संकल्प को द्रव्य नैगम कहते है । इसे ही दो 'धमियो मे एकता' इन शब्दो द्वारा कहा गया है, क्योकि द्रव्याथिक के विपय होने के कारण लक्षण भी धर्मी है और लक्ष्य भी। इस प्रकार एक धर्मी के आधार पर दूसरे धर्मी का सकल्प किया जाने के कारण यह दो धर्मियों की एकता है।
- यह सामान्य द्रव्य नैगम का लक्षण है इसलिये इसमे संग्रह नय व व्यवहार नय दोनों के लक्षण समा जाते है । उदाहरणाथ गाये एक पशु है। वह दो प्रकार की होती है-ब्राजील जाति की और