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१२ नैगम नय
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३. भूत वर्तमान व
भावि नैगम नय हीनता को धिक्कारता हुआ आगे बढने के लिये बल लगा रहा है, बाहर से मुनि भले न बन सका हो पर अन्तरङ्ग से मुनि वत् ही ध्यान आदि की साधना करता हुआ बराबर वैराग्य की ओर बढ़ रहा है। ऐसे किसी प्रगति शील साधक को या किसी सामान्य मुनिराज को या किसी ध्यानस्थ मुनि को वर्तमान में ही आप सिद्ध कह सकते है।
"अरे ! यह साधु नहीं है साक्षात प्रभु ही है" ऐसा निश्चय पूर्वक वाक्य बोला जा सकता है । यद्यपि साधु ही है परन्तु “साधु नही है" ऐसा कहना, और प्रभु हुए नही फिर भी "प्रभु ही है" ऐसा कहना विरोध को प्राप्त होता है । परन्तु निकट भविष्य म उन का प्रभु बन जाने के सम्बन्ध मे हृदय निश्चय ऐसा कहने मे कोई विरोध नही आने देता । वाक्य का अर्थ अनुक्त रुप से भी स्वत. आप को ऐसा भास जाता है कि, “प्रभु नही है, साधु ही है, पर निकट मे ही प्रभु बन जाने का निश्चय है" । इसे ही वर्तमान नैगम नय कहते है, जो भावि नैगम नय वत् होते हुते हुए भी उससे पृथक है।
उपरोक्त उदाहरणों पर से इस नय का लक्षण बना लीजिये । निष्पत्ति के निकट पहुचे हुए वर्तमान के अनिष्पन्न या अर्ध निष्पन्न कार्य को पूर्ण निष्पन्न दर्शाने का संकल्प करना वर्तमान नैगम है। अब इस लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथित उद्धरण देखिये।
१ वृह न. च.। २०८ तथा आ. प. । ६ । प. ७८. "प्रारब्धा या क्रिया
पचनविधानादि कथयति य. सिद्धा । लोकेषु पृच्छयमानो भण्यते स वर्तमान नयः ।२०८।
"कर्तु मारब्धमीषन्निष्पन्नमनिष्पन्न वा वस्तु निष्पन्न न त्यथ्यते तत्र स वर्तमान नेगमो यथा ओदनः पच्यते"