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१. नैगम नय - २५६
३. भूत वर्तमान व
__भावि नैगम नय (घ. ।। २०६) अर्थ- शंका है कि आठवे, नवे व दसवे गुण स्थान में न तो
कर्मो का क्षय है और न उपशम, फिर भी वहां क्षायिक व औपशमिक भावो का सद्भाव कैसे स्वीकार करते हो ? उत्तर में कहा कि भावि काल मे भूत का उपचार करके अर्थात भावि नैगम नय से उन भावो की सिद्धि वहा हो जाती है । इस पर शंका कार कहता है कि ऐसा करने से तो अति प्रसंग दोष आ जायेगा, क्योकि भावि नैगम नय से तो जिस किसी भी जीव को क्षपक या उपशामक कहा जा सकता है ? उत्तर मे आचार्य प्रवर कहते है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि हम जिस जीव मे उन भावो का सद्भाव बता रहे है वह जीव निश्चय से उन भावो को स्पर्श करेगा ही, यदि बाधक कर्म का उदय या मृत्यु न आये तो। इसी कारण नियम से चरित्र मोह का क्षपण व उपशमन करने वाले या ऐसा करने के उन्मुख जीवों मे क्षायिक व औपशमिक भावो की कथञ्चित उपलब्धि हो जाती है, अन्य जीवों मे नही।)
२ ध. १५।२०६।८ शका.--इस प्रकार सर्वत्र उपचार का आश्रय
करने पर अति प्रसंग दोप क्यो नही प्राप्त होगा?
उत्तरः-नही, क्योकि प्रत्यासत्ति अर्थात समीपवर्ती (निश्चित)
अर्थ के प्रसंग से अति प्रसग दोष का प्रतिषेध हो जाता है।
३. व. द्र. स. १४१४८ "अभव्य जीवे. ...अन्तरात्म परमात्म
द्वये शक्ति रूपेणैव न च भावि नैगम नयेनेति ।" .