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१२. नैगम नय
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१. नैगम नय सामान्य
अर्थात् एक रस रूप अखण्ड वस्तु मे यह नय उसके गुणों व पर्यायो को पृथक पृथक जड़ा हुआ देखता है, तथा उन गुणों आदि मे अनुस्यूत एक अखंड सत्ता को भी साथ ही ग्रहण कर लेता है।
इस दृष्टि मे द्रव्य को अनेक गुणो व एक एक गुण को अनेक पर्यायो मे विभाजित करके देखा जाता है। द्रव्य की अखण्डता को अनेक प्रदेशों में विभाजित करके देखा जाता है। इस प्रकार अद्वैत मे द्वैत उत्पन्न करके यह एक ही द्रव्य को अनेक रूप देखता है। उदाहरणार्थ इस नय की अपेक्षा अनेको स्वतत्र सत्ताधारी प्रदेश परस्पर मे एक दूसरे के साथ बधकर एक रूप धार तिष्टते है । प्रमिति तो अपने कारण रूप प्रमाण से और ज्ञप्ति अपने कारण रूप ज्ञान से भिन्न है । अर्यात् उपादान कारण व उसका कार्य इस दृष्टि मे भिन्न भिन्न स्वतंत्र विषय है, जो परस्पर मे सम्मेल को प्राप्त होकर एक वत् दीखते है । वैशेषिक व नैयायिक लोगों के मत का आधार यह नैगम दृष्टि ही है।
३. लक्षण न. ३ -जिस प्रकार अद्वैत मे द्वैत देखता है, उसी प्रकार यह नय द्वैत मे अद्वैत भी देखता है । द्वैत मे अद्वैत को तीन प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है -दो धर्मों मे एकता रूप मे, दो धर्मियो मे एकता रूप से तथा धर्म व धर्मो मे एकता रूप से। यहा धर्म धर्मी आदि शब्दो से तात्पर्य द्रव्य, गुण पर्याय के अतिरिक्त अन्य कुछ नही है । गुण, गुणी आदि शब्दों का प्रयोग प्रयोजन वश नही किया गया है । वह प्रयोजन यह है कि गुण व 'पर्याय' यह शब्द अपने अपने सीमित अर्थ का ही प्रतिपादन करते है । परन्तु 'धर्म' शब्द, गुण व पर्याय दोनों का युगपत प्रतिनिधित्व करता है। धर्म वस्तु के स्वभाव को कहते है गुण व पर्याय दोनों ही उत्पाद, व्यय, ध्रुवात्मक वस्तु के स्वभाव है । इसलिये गुण व पर्याय दोनों मे ही 'धर्म' शब्द का अर्थ चला जाता है, अकेली पर्याय भी वस्तु का धर्म है । और गुण व पर्याय दोनौ