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१२. नैगम नय
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१. नैगम नय सामान्य
राजभ्रष्ट व्यक्ति मे राजापने का संकल्प अथवा नाटक के किसी पात्र मे राजापने का संकल्प, अथवा खड़ाऊ या राजमुद्रा आदि में राजा का सकल्प । असत् पदार्थ के सम्बन्ध मे होने वाला सकल्प अप्रमाण भृत है, जैसे विन्ध्यापुत्र के लिये आकाश पुष्प का सेहरा गूथने का संकल्प, अथवा सीग वाले घोड़े पर सवारी करने का सकल्प अथवा स्वप्न की अनेको ऊँटपटांग वातों के सम्बन्ध में विचारने का सकल्प ।
भले ही काम करना अभी प्रारम्भ भी न किया हो, पर चित्त में उसे करने का संकल्प मात्र प्रगट हो जाने पर, वह कार्य जिस दृष्टि में निश्चित रूपसे समाप्त हो गया वत् प्रतिभासित होने लगता है, वही नैगम नय है, जैसे अभी देहली नही गये पर देहली जाने का विचार ही करने पर “मैं देहली जा रहा हूँ" ऐसा कहने का व्यवहार होता है । इस प्रकार संकल्प मात्र के द्वारा भूत कालीन वस्तु को अथवा भविप्यत कालीन वस्तु को वर्तमान वत् देखा जा सकता है, और इसी प्रकार अप्रमाण भूत काल्पनिक बातों को भी ज्ञान के विकल्प मे सत्-स्वरूप वत् देखा जा सकता है ।बस प्रमाण भूत व अप्रमाणभूत दोनो प्रकार के विपयो को सत् स्वरूप देखना नैगम नय का लक्षण है ।
२ लक्षण नं २ -इस दृष्टि की व्याकता मे वस्तु के सामान्य अंश व विशेष अश दोनों युगपत पृथक पृथक दिखाई देते है। अर्थात् अनेको भेदों में रहने वाली परिपूर्ण वस्तु का ग्रहण हो जाता है। यहा यह गका करनी योग्य नहीं कि सामान्य व विशेष का युगपात ग्रहण तो प्रमाण का विषय है, क्योकि प्रमाण व नैगम नय के ग्रहण में अतर है । प्रमाण भी सामान्य व विशेष दोनों अंगो को युगपत ग्रहण करता है आर नैगम नय भी, परन्तु प्रमाण का वह ग्रहण "यह विशेष इस सामान्य के है" इस प्रकार के विकल्प से रहित एक रस रूप होता है, और नैगम नय का वही ग्रहण उपरोक्त विकल्प सहित होता है ।