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११. शास्त्रीय नय सामान्य
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३. द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक
नय सामान्य
नही है जो कि पहले था इस प्रकार का उर्ध्व विशेष रूप ग्रहण जिस दृष्टि से होता है उसे ही अनित्य ग्राहक विशेष दृष्टि कहते हैं--जैसे वालक,युवा व वृद्ध अवस्थाओं 'वही तो है' ऐसा ग्रहण करने वाली दृष्टि नित्य या सामान्य ग्राहक है और बालक से वृद्ध हो जाने पर 'यह तो कुछ अन्य ही है' ऐसा ग्रहण करने वाली दृष्टि अनित्य या विशेष ग्राहक दृष्टि कहलाती है । सामान्य ग्राहक दृष्टि का नाम द्रव्याथिक नय है और विशेष ग्राहक दृष्टि का नाम पर्यायार्थिक नय है ।
द्रव्यार्थिक नय मे वस्तु की सत्ता सामान्य की मुख्य रहती है और उसके विशेषाश गौण रहते है, तथा पर्यायार्थिक नय में उसके विशेपाश मुख्य रहते है और उसकी सत्ता सामान्य गौण रहती है । वस्तु के दो ही मूल अंश है अत इनको ग्रहण करने वाली मूल नये भी दो है -- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक । इनके भी आगे अनेक प्रकार से भेद प्रभेद किये जायेगे । तहा द्रव्यार्थिक नय के दो मुख्य भेद है--अभेद ग्राहक व भेद ग्राहक और पर्यायार्थिक के भी अनादि अनन्त पर्याय ग्राहक, अनादि सान्त पर्याय ग्राहक, सादि पर्याय ग्राहक इत्यादि अनेको भेद हो जाते है जिनका विशेष परिचय आगे यथा स्थान दिया जायेगा ।
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गुण पर्याय आदि विशेषांशो को ग्रहण न करके उस वस्तु का एक रस रूप निर्विकल्प व अखण्ड भाव ग्रहण करने वाली दृष्टि किसी भी पदार्थ को अभेद देखती है, जैसे कि मनुष्य ऐसा कहने पर बालक युवा आदि के विकल्पो से रहित सामान्य मनुष्य का ग्रहण होता है । यही अभेद ग्राहक द्रव्यार्थिक दृष्टि है । और द्रव्य मे गुण पर्यायों आदि रूप से भेद उत्पन्न करके उनके समूह रूप मे उसे देखना भेद ग्राहक द्रव्यार्थिक दृष्टि है, जैसे 'मनुष्य' ऐसा कहने पर बालक से वृद्ध पर्यंत की सव उर्ध्वं विशेष रूप अवस्थाओ का युगपत ग्रहण हो जाने
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