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६. नय की स्थापना १९३ १० आगम पद्धति
व अध्यात्म पद्धति की कोई आवश्यकता नही है । क्योंकि नय विकलादेशी होती है । समुदाय रूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाण का विषय है ।
इन दोनों ही नयों का कथन दो प्रकार से करने मे १०.आगमपद्धति आता है-आगम पद्धति से और अध्यात्म पद्धति
व अध्यात्म से । तहा जीव अजीव आदि सर्व ही पदार्थो
पद्धति का सामान्य कथन करना अर्थात् द्रव्य सामान्य सम्बन्धी सिद्धांत जानने के अर्थ व्याख्यान करना आगम पद्धति है। इस पद्धति में जीव द्रव्य की कुछ प्रधानता और अन्य द्रव्यों की गौणता सम्भव नही । यहां सब ही पदार्थ एक कोटी मे है । उनको जानना मात्र अभीष्ट है, अतः किसी का भी निषेध नही । कौन पदार्थ हेय है और कौन उपादेय यह बताना यहां प्रयोजनीय नही है । इसीलिये इस पद्धति मे नयो के नाम भी वस्तु के स्वभाव का आश्रय करके रखे गये है-जैसे द्रव्याथिक, पर्यायार्थिक, भेद ग्राहक, अभेद ग्राहक आदि ।
अध्यात्म पद्धति मे केवल आत्मा अर्थात् जीव द्रव्य का ही कथन करना प्रमुख है। आत्मा का स्वभाव, उसके गुण पर्याय, उनमे भेद अभेद तथा उसका अन्य पदार्थो के साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध आदि सर्व बाते बताना इसका काम है । आत्मा के लिये क्या कुछ हेय है और क्या कुछ उपादेय इस बात का विवेक कराके उसकी शुद्धता व अशुद्धता आदि के विकल्पो का परिचय देना इस अध्यात्म पद्धति मे ही आता है । इसीलिये इस पद्धति मे नयो के नाम भी केवल आत्म पदार्थ का तथा उसके लिये इष्ट व अनिष्ट बातो का आश्रय करके रखे गये है-जैसे निश्चय, व्यवहार, शुद्ध, अशुद्ध,सद्भूत, असद्भूत आदि ।
इन दोनो मे से पहिले आगम पद्धति के आधार पर नयों का निरूपण किया जायेगा, क्योकि द्रव्य सामान्य सम्बन्धी परिचय पाये बिना द्रव्य विशेष अर्थात् आत्म पदार्थ का तथा उसके लिये हेय व उपादेय का निर्णय करना असम्भव है ।