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६. नय की स्थापना १६१ ६ . नयो के मूल भेदो
का परिचय अगो की पृथक-पृथक सत्ता को गौण करके उनके समूह स्वरूप केवल अंगों की अभेद सत्ता को ही मुख्य रूपेण ' ग्रहण करता है, और पर्यायार्थिक नय अभेद अगी की सत्ता को गौण करके केवल एक किसी भी अंग की पृथक-पृथक सत्ता को ही मुख्य रूपेण देखता है ।
उदाहरणार्थ द्रव्य गुण व पर्यायो का एक अखण्ड पिण्ड है । तहा गुण व पर्याये वास्तव मे अपना कोई भी पृथक अस्तित्व नही रखते । इन का सामूहिक एक अखण्ड .पिण्ड ही सत् है । वही द्रव्य है। जीव ज्ञानादि अनेक गुणो व तिर्यच मनुष्यादि अनेक पर्यायो मे अनुस्थूल जो एक ध्रुव तत्व है वही जीव द्रव्य है । बालक, युवा व बूढ़ा यह तीन नही बल्कि एक ही मनुष्य है । ऐसा द्रव्यार्थिक नय देखता है। इससे विपरीत एक एक गुण व एक एक पर्याय की पृथक पृथक सत्ता को दर्शाना पर्यायाथिक नय काकाम है । जैसे ज्ञान कुछ और है और श्रध्दा, चारित्रादि कुछ और है। इनमे परस्पर कोई एकता नही है । इसी प्रकार तिर्यंच कोई और है और मनुष्य कोई और इनमे अनुस्) कोई जीव नामका अन्य ध्रुव तत्व लोक में दिखाई नही देता । इसी प्रकार बालक कोई और था और यह बूढा व्यक्ति, कोई और है, इन दोनो को एक ही व्यक्ति कहना भ्रम है । पर्यायार्थिक नय का ऐसा अभिप्राय रहता है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय तो द्वैत मे अद्वैत करके देखता है । पर पर्यायार्थिक नय केवल एकत्व को ।
. जिस प्रकार ऊपर कालात्मक या परिवर्तन शील अग का आश्रय लेकर कथन किया गया उसी. प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, व भाव पर भी लागू करना । दो द्रव्यों का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दिखाना द्रव्यार्थिक है, और प्रत्येक द्रव्य को पृथक पृथक देखना पर्यायाथिक है । द्रव्य को अनेक प्रदेश वाला कहना द्रव्याथिक दृष्टि है और एक प्रदेश मात्र ही उसे देखना पर्यायाथिक दृष्टि है ।