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६. नय की स्थापना
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६ नय प्रयोग से लाभ
आगम कारों ने अनेक प्रमुख प्रमुख दृष्टियों का संग्रह करके ६. नय प्रयोग उनका सज्ञा करण किया है । यद्यपि आप अपनी ओर से लाभ से भी उस उस दृष्टि के लिये कोई अपना शब्द नियुक्त कर सकते हैं, पर इस प्रकार की उलझन मे न पड़ कर जैसा कि व्यवहार है, मै उन्ही आगमोक्त शब्दों का प्रयोग करके वह वह दृष्टि दर्शाऊगा । इसे ही नय के प्रयोग का अभ्यास कहते है। एक बार उस शब्द का ठीक ठीक प्रयोग वाक्य पर लागू करना आपको आ जाये तो, वह वह शब्द आपके लिये भी नय रूप हो जायेगा। अभ्यास कीजिये, इसी का नाम सीखना है, इसी को नय वाद कहते है । और इस प्रकार स्कूलों व कालेजों मे या आपके दैनिक व्यवहार मे जो भी यह शब्द व्यवहार प्रचलित है वह सब नय व्यवहार है । अन्तर केवल इतना ही है कि वहा शब्दो का प्रयोग करके भी उसके प्रयोग का कारण आप जान नही पाते । स्वतः ही प्रयोग हो जाता है । यहा उसे ही सिद्धात का रूप देकर उन प्रयोगों के लक्षण कारण प्रयोजन आदि दर्शाये जा रहे है । इसीसे कुछ विचित्र नया सा लगता है । वास्तव में नया नहीं। यह वैज्ञानिक मार्ग है। साम्प्रदायिक नही । जैनियों के लिये ही नही, हर व्यक्ति के लिये इस सिद्धान्त का जानना आवश्यक है। यदि इस सिद्धान्त की ट्रेनिग प्राप्त कर ली जाये, तो वक्ता के वचनों का टोक ठीक अर्थ बहुत सरलता से लगाया जा सकता है । अतः यह नय वाद जैनियों की कोई मीरास हो ऐसा नही। किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को, भले ही आप उसके अग्र प्रदाता अर्थात वैज्ञानिक के नाम के आधार पर जाने या कहे, पर वह सर्व लोक के लिये ही सत्य रूप से ग्राह्य है, बस इसी प्रकार से यहां भी समझ कर साम्प्रदायिक दृष्टि का त्याग कर । इस सिद्धान्त की महत्ता को समझ, और आगे आगे जीवन में इसका प्रयोग कर, ताकि पद पद पर वक्ता व श्रोता के बीच पडने वाली गलत फेहमिये दूर हो जाये।
आगे आने वाले लम्बे प्रकरण मे मै यही दर्शाने का प्रयत्न करूगा कि किस प्रकार अनेकों भिन्न भिन्न अभिप्रायों में रंगा हुआ वाक्य